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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५३२-५३५ वा तिच प्रायु का बंध कीया, पीछे क्षायिक वा वेदक सम्यक्त्व कौ अंगीकार करि मरें, तिस सहित ही तहां भोगभूमि विषे उपजै । 'तहां तिस योग्य संक्लेश परिणाम कपोत का जघन्य अंश, तिसरूप परिणमे है । बहुरि भोगभूमि विषै पर्याप्त अवस्था विपै सम्यग्दृष्टी वा मिथ्यादृष्टी जीव के पीतादिक तीन शुभलेश्या ही पाइए है ।
यो त छस्सा, सुह-तिय-लेस्सा हु देसविरद-तिये । तत्तो सुक्का लेस्सा, जोगिठाणं अल ेस्सं तु ॥ ५३२॥
असंयत इति षड् लेश्याः, शुभत्रयलेश्या हि देशविरतत्रये । ततः शुक्ला लेश्या, अयोगिस्थानमलेश्यं तु ।। ५३२ ।।
टीका - असयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विषे छहो लेश्या है । देशविरत प्रादि तीन गुणस्थाननि विषै पीतादिक तीन शुभलेश्या ही हैं । ताते ऊपरि पूर्वकरण तँ लगाइ सयोगी पर्यंत छह गुणस्थाननि विषै एक शुक्ल लेश्या ही है । प्रयोगी गुणस्थान लेश्या रहित है जाते, तहा योग कषाय का अभाव है ।
णट्ठ- कसाये लेस्सा, उच्चदि सा भूद-पुव्व-गदि - णाया । ग्रहवा जोग-पउत्ती, मुक्खो त्ति तहि हवे - लस्सा ॥ ५३३॥
नष्टकषाये लेश्या, उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्यायात् । अथवा योगप्रवृत्तिः, मुख्येति तत्र भवेल्लेश्या ||५३३॥
टीका उपशात कषायादिक जहां कषाय नष्ट होइ गए, असे तीन गुणस्थाननि विषै कपाय का अभाव होते भी लेश्या कहिए है, सो भूतपूर्वगति न्याय ते कहिए है । पूर्वे योगनि की प्रवृत्ति कषाय सहित होती थी, तहा लेश्या का सद्भाव था, इहा योग पाइए है; तातै उपचार करि इहां भी लेश्या का सद्भाव कह्या । अथवा योनि की प्रवृत्ति, सोई लेश्या, असा भी कथन है, सो योग इहा है ही, ताकी प्रधानता करि तहां लेश्या है |
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तिन्हं दोण्हं दोन्हं, छण्हं दोन्हं च तेरसहं च । एत्तो य चोद्दसहं, लोस्सा भवणादि देवाणं ॥ ५३४॥
ऊ तेऊ तेऊ, पम्मा पम्मा य पम्म सुक्का य । सुक्का य परमसुक्का, भवणतिया पुण्णगे सुहा ॥ ५३५ ॥