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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५६६ आठवा अपकर्प विप पर भव की आयु को बधने कौं योग्यपना जानना । जैसे ही जो भुज्यमान प्रायु का प्रमाण होय, ताके त्रिभाग विभाग विष आठ अपकर्ष जानने।
बहुरि जो आठौ अपकर्षनि विर्ष आयु न बंधै अर नवमा आदि अपकर्ष है नाही, तौ आयु का बंध कैसे होइ ?
__ सो कहै है - असंक्षेपाद्वा जो आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण काल भुज्यमान अायु का अवशेप रहै ताके पहिले अतर्मुहूर्त काल मात्र समय प्रबद्धनि करि परभव की आयु को वाघि पूर्ण कर है, असा नियम है । इहा विशेष निर्णय कीजिए है - विपादिक का निमित्तरूप कदलीघात करि जिनका मरण होइ, ते सोपक्रमायुप्क कहिए । तातै देव, नारकी, भोगभूमिया अनुपक्रमायुष्क है। सो सोपक्रमायुष्क है, ते पूर्वोक्त रीति करि पर भव का आयु कौं बाध है । तहां पूर्वोक्त आठ अपकर्षनि विर्षे
आयु के वंध होने की योग्य जो परिणाम तिनकरि केई जीव आठ वार, केई जीव सात वार, केई छह वार, केई पाच वार, केई च्यारि वार, केई तीन वार, केई दो वार, केई एक वार परिणमै है।
आयु के वध योग्य परिणाम अपकर्षणनि विष ही होइ, सो असा कोई स्त्रभाव सहज ही है। अन्य कोई कारण नाही।
तहां तीसरा भाग का प्रथम समय विर्ष जिन जीवनि करि परभव के आयु का बंध प्रारंभ किया, ते अतर्मुहूर्त ही विष निष्ठापन करै । अथवा दूसरी बार आयु का नवमां भाग अवशेष रहै, तहा तिस बध होने की योग्य होइ । अथवा तीसरी वार आयु का सत्ताईसवां भाग अवशेष रहै, तहां तिस बध होने की योग्य होइ, असे आठवा अपकर्ष पर्यंत जानना । जैसा किछु नियम है नाही - जो इनि अपकर्पनि विप आयु का बंध होइ ही होइ । इनि विष आयु के बंध होने की योग्य होइ । जो बध होइ तौ होइ न होइ तौ न होइ । असे आयु के बंध का विधान कह्या।
जैसे अन्यकाल विर्ष समय समय प्रति समयप्रबद्ध बधै है, सो आयुकर्म विना सात कर्मरूप होइ परिणमै है । तैसे आयुकर्म का बंध जेता काल मे होइ, तितने काल विर्षे जे समय समय प्रति समयप्रबद्ध बधै ते आठो ही कर्मरूप होइ परिणम है असे जानना।