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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५९७ जाणदि कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव-सम-पासी। दय-दाण-रदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥५१५॥
जानाति कार्याकार्य, सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी ।
दयादानरतश्च मृदुः, लक्षणमेतत्तु तेजसः ॥५१॥ टीका - कार्य - अकार्य को जाने, सेवनेयोग्य न सेवनेयोग्य कौं जाने, सर्व विष समदर्शी होइ, दया - दान विष प्रीतिवंत होइ; मन, वचन, काय विर्ष कोमल होइ, असे लक्षण पीतलेश्यावाले के है।
चागी भद्दो चोक्खो, उज्जव-कम्मो य खमदि बहुगं पि। साहु-गुरु-पूजण-रदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥५१६॥
त्यागी भद्रः सुकरः, उद्युक्तकर्मा च क्षमते बहुकमपि । साधुगुरुपूजनरतो, लक्षणमेतत्तु पद्मस्य ॥५१६॥
टीका - त्यागी होइ, भद्र परिणामी होइ, सुकार्यरूप जाका स्वभाव होइ, शुभभाव विषै उद्यमी रूप जाके कर्म होइ, कष्ट वा अनिष्ट उपद्रव तिनको सहै, मुनि जन अर गुरुजन तिनकी पूजा विर्ष प्रीतिवंत होइ, असे लक्षण पद्मलेश्यावाले के है ।
ण य कुणदि पक्खवायं, ण वि य रिणदाणं समो य ससि । णत्थि य राय-दोसा रणेहो वि य सुक्क-लेस्सस्स ॥५१७॥
न च करोति पक्षपातं, नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम् ।
नास्ति च रागद्वेषः स्नेहोऽपि च शुक्ललेश्यस्य ॥५१७॥ टीका - पक्षपात न करै, निदा न कर, सर्व जीवनि विपै समान होट, पाट अनिष्ट विर्षे राग - द्वेष रहित होइ, पुत्र कलत्रादिक विप स्नेह रहित होर में लक्षण शुक्ल लेश्यावाले के है । इति लक्षणाधिकार ।
१. षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा सं. २०६ । २ षट्खडागम-घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६२, गाया स. २०७ । ३ पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६२, गाथा स २०६।