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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४८४-४८५-४८६ आगे चक्षु - अचक्षु दर्शन के लक्षण कहै हैचक्खूण जं पयासइ, दिस्सइ तं चक्खु-दंसणं बैंति । सेसिदिय-प्पयासो, णायवो सो अचक्खू त्ति ॥४८४॥
चक्षुषोः यत्प्रकाशते, पश्यति तत् चक्षुर्दर्शनं अवंति ।
शेषेद्रियप्रकाशो, ज्ञातव्यः स अचक्षुरिति ॥४८४॥ टोका - नेत्रनि का संबंधी जो सामान्य ग्रहण, सो जो प्रकाशिए, देखिए याकरि वा तिस नेत्र के विषय का प्रकाशन, सो चक्षुदर्शन गणधरादिक कहै हैं । बहुरि नेत्र विना च्यारि इद्रिय अर मन का जो विषय का प्रकाशन, सो अचक्षुदर्शन है, असा
जानना।
परमाणु-आदियाई, अंतिम-खधं त्ति मुत्ति-दव्वाइं। तं ओहि-दंसणं पुण, जं पस्सइ ताइ पच्चक्खं ॥४८॥
परमाणवादीनि, अंतिमस्कंधमिति मूर्तद्रव्याणि ।
तदवधिदर्शनं पुनः, यत् पश्यति तानि प्रत्यक्षम् ॥४८५।। टोका ~ परमाणु आदि महास्कंध पर्यंत जे मूर्तीक द्रव्य, तिनिको जो प्रत्यक्ष देखें, सो अवधिदर्शन है।
बहुविह बहुप्पयारा, उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि । लोगालोग वितिमिरो, जो केवलदसणुज्जोओ ॥४८६॥
वहुविधबहुप्रकारो, उद्योताः परिमिते क्षेत्रे ।
लोकालोकवितिमिरो, यः केवलदर्शनोद्योतः ॥४८६॥ टोका - बहुत भेद कौं लीए बहुत प्रकार के चंद्रमा, सूर्य, रत्नादिक संबंधी उद्योत जगत विप हैं । ते परिमित जो मर्यादा लीए क्षेत्र, तिस विष ही अपने प्रकाश
' २. प
मागम-घाना पुस्तक १, पृ ३६४, गा. स १६५, १९६ तथा देखो पू. ३०० से ३८२ तक।
गम-पाना पुस्तक १, गाया स १६६, पृष्ठ ३०४ । सागर-पवना पुस्तक १, मा. म. १९७, ३८४५