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________________ ४५८ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा ४३३-४३४ अन्य क्षेत्र को जाइ, अर तहां अवधि होइ तौ पूर्वोक्त स्थानक पर्यंत ही होइ, असा नाही, जो प्रथम स्वर्गवाला पहिले नरक जाइ, अर तहां सेती डेढ राजू नीचे और जानें। सौधर्मद्विक के प्रथम नरक पर्यंत अवधि क्षेत्र है; सो तहां भी तिष्ठता तहां पर्यंत क्षेत्र ही कौं जाने; असे सर्वत्र जानना । बहुरि अपना क्षेत्र विर्षे एक प्रदेश घटावना, अर अपने अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं एक बार ध्र वहार का भाग देना, जहां सर्व प्रदेश पूर्ण होंइ, सो तिस अवधि का विषयभूत द्रव्य जानना। इस ही अर्थ को नीचे दिखाइए है - कप्पसुराणं सग-सग-ओहीखेत्तं विविस्ससोवचयं । ओहीदव्वपमाएं, संठाविय धुवहरेण हरे ॥४३३॥ सग-सग-खोत्तपदेस-सलाय-पमारणं समप्पदे जाव । तत्थतणचरिमखंडं, तत्थतणोहिस्स दव्वं तु ॥४३४॥ कल्पसुराणां स्वकस्वकावधिक्षेत्रं विविनसोपचयम् । अवधिद्रव्यप्रमाणं, संस्थाप्य ध्रुवहरेण हरेत् ॥४३३॥ स्वकस्वकक्षेत्रप्रदेशशलाकाप्रमाणं समाप्यते यावत् । तत्रतनचरमखंडं, तत्रतनावधेर्द्रव्यं तु ॥४३४॥ टीका - कल्पवासी देवनि के अपना अपना अवधि क्षेत्र पर विस्रसोपचय रहित अवधिज्ञानावरण का द्रव्य स्थापि करि अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं एक बार ध्रुवहारका भाग देइ, क्षेत्र विष एक प्रदेश घटावना, असे सर्व क्षेत्र के प्रदेश पूर्ण होंइ, तहां जो अत विष सूक्ष्म पुद्गलस्कधरूप खड होइ, सोई तिस अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य जानना । इहा उदाहरण कहिए है-सौधर्म ऐशानवालों का क्षेत्र प्रथम नरक पर्यंत कह्या है; सो प्रथम नरक ते पहला दूसरा स्वर्ग का उपरिम स्थान ड्योढ राजू ऊंचा है। तातै अवधि का क्षेत्र एक राजू लंबा - चौड़ा, ड्योढ राजू ऊचा भया । सो इस धन रूप ड्योढ राजू क्षेत्र के जितने प्रदेश होइ, ते एकत्र स्थापने । बहुरि किंचिदून द्वय गुणहानि करि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण सत्वरूप सर्व कर्मनि की परमाणूनि का परिमाण है । तिस विप अवधिज्ञानावरण नामा कर्म के जेते परमाणु होई, तिन विर्षे
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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