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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] परमावधेर्भेदाः, स्वकावगाहनविकल्पाहततेजसः । चरमे हारप्रमारण, ज्येष्ठस्य च भवति द्रव्यं तु ॥ ४१४ ॥ टीका - अग्निकाय की अवगाहना का जघन्य तें उत्कृष्ट पर्यंत जो भेदनि का प्रमाण, ताकरि अग्निकाय के जीवनि का परिमारण कौ गुणै, जो प्रमाण होइ, तितने परमावधि ज्ञान के भेद है । तहां प्रथम भेद के द्रव्य को ध्रुवहार का भाग दीए, दूसरा भेद का द्रव्य होइ । दूसरा भेद का द्रव्य कौं ध्रुवहार का भाग दीए, तीसरा भेद का द्रव्य होइ । असे अंत का भेद पर्यंत जानने । अंत भेद विषै ध्रुवहार प्रमाण द्रव्य है । ध्रुवहार का जो परिमाण तितने परमाणूनि का सूक्ष्म स्कध कौ उत्कृष्ट परमावधिज्ञान जाने है । सव्वावहिस्स एक्को, परमाणू होदि णिव्वियप्पो सो । गंगामहाणइस्स, पवाहव्व धुवो हवे हारो ॥ ४१५॥ [ ५४७ सर्वावधेरेकः, परमाणुर्भवति निर्विकल्पः सः । गंगामहानद्याः, प्रवाह इव ध्रुवो भवेत् हारः ॥ ४१५॥ टीका - उत्कृष्ट परमावधि ज्ञान का विषय ध्रुवहार प्रमारण ताकौ ध्रुवहार ही का भाग दीजिए, तब एक परमाणू मात्र सर्वावधि ज्ञान का विषय है । सर्वावधि ज्ञान पुद्गल परमाणू को जाने हैं । सो यह ज्ञान निर्विकल्प है । यामे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद नाही । बहुरि जो वह ध्रुवहार कह्या था, सो गंगा महानदी का प्रवाह समान ही है । जैसे गंगा नदी का प्रवाह हिमाचल स्यों निकसि विच्छेद रहित वहिकरि पूर्व समुद्र को प्राप्त होइ तिष्ठ्या, तैसे ध्रुवहार जघन्य देशावधि का विपयभूत द्रव्य ते परमावधि का उत्कृष्ट भेद पर्यंत अवधिज्ञान के सर्व भेदनि विषे प्राप्त होइ सर्वावधि का विषयभूत परमाणू तहा तिष्ठ्या, जातें सर्वावधि ज्ञान भी निर्विकल्प है अर याका विषय परमाणू है, सो भी निर्विकल्प है । परमोहिदव्वभेदा, जेत्तियमेत्ता ह तेत्तिया होंति । तस्सेव खेत्त-काल, वियप्पा विसया असंखगुणिदकमा ॥४१६ || परमावधिद्रव्यभेदा, यावन्मात्रा हि तावन्मात्रा भवंति । तस्यैव क्षेत्र काल, विकल्पा विषया असंख्यगुरिणतक्रमा || ४१६ ||
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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