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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीकाएँ]
अंगुला संख्यभागे, द्रव्यविकल्पे गते तु क्षेत्रे । एकाकाशप्रदेशी, वर्धते संपूर्णलोक इति ॥ ३९९॥
टीका - सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होते सतै, क्षेत्र विषै एक आकाश का प्रदेश बधै सा अनुक्रम जघन्य देशावधि के क्षेत्र ते, उत्कृष्ट देशावधिज्ञान का विषयभूत सर्व सपूर्ण लोक, तीहि पर्यंत जानना । सो यहु कथन टीका विषै पूर्वे विशदरूप कह्या ही था ।
आवलिअसंखभागो, जहण्णकालो कमेण समयेण । वड्ढदि देसोहिवरं, पल्लं समऊणयं जाव ॥ ४००॥
कहै है
आवल्यसंख्य भागो, जघन्यकालः क्रमेण समयेन । वर्धते देशावधिवरं, पल्यं समयोनकं यावत् ॥४०० ॥
टीका देशावधि का विषयभूत जघन्य काल आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण है । सो यहु अनुक्रम ते ध्रुववृद्धि करि अथवा अध्रुववृद्धि करि एक एक करि समय करि तहां पर्यंत बधे, जहा एक समय घाटि पल्य प्रमाण उत्कृष्ट देशावधि का विषयभूत काल होइ, उत्कृष्ट देशावधिज्ञान एक समय घाटि पल्पप्रमाण अतीत, अनागत काल विषै भए वा होहिगे जे स्वयोग्य विपय तिने जाने है ।
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आगे क्षेत्र काल का परिमारण उगरणीस कांडकनि विषै कह्या चाहे है | कांडक नाम पर्व का है । जैसे साठे की पैली हो है, सो गाठि त अगिली गाठि पर्यंत जो होइ, ताकौ एक पर्व कहिए । तैसे किसी विवक्षित भेद तै लगाइ, किसी विवक्षित भेद पर्यंत जेते भेद होहि, तिनिका समूह, सो एक काडक कहिए । अँसे देशावविज्ञान विषै उगणीस काडक है ।
तहां प्रथम कांडक विषै क्षेत्र काल का परिणाम अढाई गाथानि करि
अंगुलप्रसंखभागं, धुवख्वेण य श्रसंखवारं तु । असंखसंखं भागं, असंखवारं तु अधुवगे ॥४० १॥
अंगुल संख्यवारं, ध्रुव रूपेण च असंख्यवारं तु । असंख्य संख्यं भागं, असंख्यवारं तु अध्रुवगे ॥ ४०२ ॥