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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
इनिको परस्पर गुणन कीए, घनांगुल का असख्यातवा भाग प्रमाणघन क्षेत्रफल हो है, सो इतना ही प्रमाण जघन्य अवगाहना का है । अर इतना ही प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का है, तातै समान कहै है ।
श्रवरं तु ओहिखेत्तं, उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा | सुमोगाहणमाणं, उवरि पमाणं तु अंगुलयं ॥ ३८१॥ श्रवरं तु श्रवधिक्षेत्रं, उत्सेधमंगुलं भवेद्यस्मात् । सूक्ष्मावगाहनमानमुपरि प्रमाणं तु अंगुलकम् ॥ ३८१॥
टीका बहुरि जो यहु जघन्य अवगाहना समान जघन्य देशावधि का क्षेत्र, घनांगुल के असंख्यातवे भाग मात्र कह्या, सो उत्सेधागुल का घन प्रमारण जो घनांगुल, ताके असंख्यातवें भागमात्र जानना । जाते इहां सूक्ष्म निगोद, लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के समान जघन्य देशावधि का क्षेत्र कह्या, सो शरीरनि का प्रमाण है, सो उत्सेधांगुल ही ते है, जाते परमागम विषै भैसा कया है कि देह, गेह, ग्राम, नगर इत्यादिक का प्रमाण उत्सेधांगुल तें है । तातै इहां जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण भी उत्सेधांगुल की ही अपेक्षा जानना । इस उत्सेधांगुल का ही नाम व्यवहारांगुल है ।
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बहुरि आगे जो 'अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज' इत्यादि सूत्र उक्त काडकनि विषै अंगुल का है । सो वह अंगुल प्रमाणांगुल जानना । जाते वाके आगे हस्त, क्रोश, योजन, भरत, क्षेत्रादि उत्तरोत्तर कहैं हैं । बहुरि श्रागम विषै द्वीप, क्षेत्रादि का प्रमाण प्रमारणागुल ते कह्या है । तातै तहा प्रमाणांगुल ही का ग्रहण करना ।
अवरोहिखेत्तम, अवरोही अवरदव्वमवगमदि । तद्दव्वस्वगाहो, उस्सेहासंखघणपदरो ॥ ३८२॥
अवरावधिक्षेत्रमध्ये अवरावधिः श्रवरद्रव्यमवगच्छति । तद्द्द्रव्यस्यावगाहः उत्सेधासंख्यघनप्रतरः ||३८२॥
टीका - तीहि जघन्य अवधिज्ञान सबधी क्षेत्र विषे जे पूर्वोक्त जघन्य अवधि ज्ञान के विषय भूत द्रव्य तिष्ठे हैं; तिनकौ जघन्य देशावधिज्ञानी जीव जाने है। तीहि क्षेत्र विषै तैसे प्रदारिक शरीर के संचय कौ लोक का भाग दीए एक भाग मात्र खंड