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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका )
[ ५२७ नाही; तातै विस्रसोपचय सहित कह्या । जैसै स्कंध को लोक के जितने प्रदेश है, उतने खंड करिये। तहां एक खड प्रमाण पुद्गल परमाणूनि का स्कध नेत्रादिक इद्रियनि के गोचर नाहीं । ताकौं जघन्य देशावधिज्ञान प्रत्यक्ष जाने है। जैसा जघन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य का नियम कह्या।
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स, जादस्स तदियसमयम्हि । अवरोगाहणमाणं, जहण्णयं प्रोहिखेत्तं तु ॥३७८॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य, जातस्य तृतीयसमये ।
अवरावगाहनमानं, जघन्यकमवधिक्षेत्रं तु ॥३७८॥ टीका - बहुरि सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक के जन्म ते तीसरा समय के विर्षे जघन्य अवगाहना का प्रमाण पूर्वं जीव समासाधिकार विष कह्या था, तीहिं प्रमाण जघन्य अवगाहना का क्षेत्र जानना। इतने क्षेत्र विषै पूर्वोक्त प्रमाण लीए वा तिसत स्थूल जेते पुद्गल स्कध होंइ, तिनिको जघन्य देशावधिज्ञान जाने है। इस क्षेत्र के बारै तिष्ठते जे होइ, तिनको न जाने है, जैसे क्षेत्र की मर्यादा कही।
अवरोहिखेत्तदोहं, वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो । अण्णं पुण समकरणे, अवरोगाहणपमाणं तु ॥३७६॥
अवरावधिक्षेत्रदीर्घ, विस्तारोत्सेधकं न जानीमः ।
अन्यत् पुनः समीकरणे, अवरावगाहनप्रमाणं तु ॥३७९॥ टीका - बहुरि जघन्य देशावधिज्ञान का विषय भूत क्षेत्र की लवाई, चौडाई, ऊंचाई का प्रमाण हम न जाने है कितना कितना है, जाते इहा असा उपदेश नाही, परंतु परम गुरुनि का उपदेश की परम्परा ते इतना जाने है, जो भुज, कोटि, वेधनि का समीकरण ते जो क्षेत्रफल होइ, सो जघन्य अवगाहना के समान धनांगुल के असंख्यातवे भागमात्र हो है ।
आम्ही साम्ही दोय दिसानि विषै जो कोई एक दिशा सबंधी प्रमाण, सो भुज कहिये।
अवशेष दोय दिसानि वि कोई एक दिशा संवधी प्रमाण, सो कोटि कहिए।