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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६७-३६८
बहुरि भाव, जो जीवादिक तत्त्व विषै उपयोगरूप पर्याय, ताके मिथ्यात्वकषायरूप संक्लेशपना की निवृत्ति अथवा सामायिक शास्त्र कौ जाने है पर उस ही विषै उपयोग जाका है, सो जीव अथवा सामायिक पर्यायरूप परिणमन, सो भावसामायिक है ।
जैसे सामायिक नामा प्रकीर्णक कया है ।
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बहुरि जिस काल विषै जिनका प्रवर्तन होइ, तिस काल विषै तिन ही चौबीस तीर्थंकरनि का नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव का आश्रय करि पंच कल्याणक, चौतीस अतिशय आठ प्रातिहार्य, परम श्रदारिक दिव्य शरीर, समवसरणसभा, धर्मोपदेश देना इत्यादि तीर्थकरपने की महिमा का स्तवन सो चतुर्विंशतिस्तव कहिए | ताका प्रतिपादक शास्त्र, सो चतुर्विंशतिस्तव नामा प्रकीर्णक है ।
बहुरि एक तीर्थकर का अवलंबन करि प्रतिमा, चैत्यालय इत्यादिक की स्तुति, सो वंदना कहिए | याका प्रतिपादक शास्त्र, सो वंदना प्रकीरक कहिए ।
बहुरि प्रतिक्रम्यते कहिए प्रमाद करि कीया है दैवसिक आदि दोष, तिनिका निराकरण जाकरि कीजिए, सो प्रतिक्रमरण प्रकीर्णक कहिए । सो प्रतिक्रमण प्रकीर्णक सात प्रकार है - दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक उत्तमार्थ ।
तहां संध्यासमय दिन विषै कीया दोष, जाकरि निवारिए, सो दैवसिक है । बहुरि प्रभातसमय रात्रि विषै कीया दोष जाकरि निवारिए, सो रात्रिक है । बहुरि पंद्र दिन, पक्ष विर्ष कीया दोष जाकरि निवारिए, सो पाक्षिक कहिए । बहुरि चौथे महीने च्यारिमास विषै कीए दोष जाकर निवारिए, सो चातुर्मासिक कहिए । बहुरि वर्ष दिन एकवर्ष विषै कीए दोष जाकरि निवारिए, सो सांवत्सरिक कहिए । बहुरि गमन कर तै निपज्या दोष जाकरि निवारिए; सो ऐर्यापथिक कहिए । बहुरि सर्व पर्याय सबंधी दोष जाकरि निवारिए; सो उत्तमार्थ है । औसे सात प्रकार प्रतिक्रमण
जानना ।
सो भरतादि क्षेत्र र दुःषमादिकाल, छह संहनन करि संयुक्त स्थिर वा अस्थिर पुरुषनि के भेद, तिनकी अपेक्षा प्रतिक्रमण का प्रतिपादक शास्त्र, सो प्रतिमरण नामा प्रकीर्णक कहिए ।