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] गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६५-३६६
बहुरि व्यवहार करि मनुष्यादि पर्यायरूप परिणवै है, तातै मानव कहिए । उपलक्षण ते नारकी वा तिर्यच वा देव कहिए । निश्चय करि मनु कहिए ज्ञान, तीहि विष भवः कहिए सत्तारूप है; तातै मानव कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि कुटुंब, मित्रादि परिग्रह विर्ष सजति कहिये आसक्त होइ प्रवर्ते है; तातै सक्ता कहिए । निश्चयकरि सक्ता नाही है।
बहुरि व्यवहार करि संसार विष नाना योनि विष जायते कहिए उपजै है, जातै जंतु कहिये । निश्चय करि जंतु नाही है ।
बहुरि व्यवहार करि मान कहिए अहंकार, सो याके है; तात मानी कहिए । निश्चयकरि मानी नाही है ।
बहुरि व्यवहार करि माया जो कपटाई; सो याकै है; तातै मायावी कहिए। निश्चय करि मायावी नाहीं है ।
बहुरि व्यवहारकरि मन, वचन, काय क्रियारूप योग याकै है; तातै योगी कहिए। निश्चय करि योगी नाही है ।
बहुरि व्यवहार करि सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना करि प्रदेशनि को संकोचै है; तातै संकुट है । बहुरि केवलिसमुद्धात करि सर्व लोक विष व्याप है, तातै असंकुट है । निश्चय करि प्रदेशनि का सकोच विस्तार रहित किंचित् ऊन चरम शरीर प्रमाण है, तातै संकुट, असंकुट नाही है।
वहुरि दोऊ नय करि क्षेत्र, जो लोकालोक, ताहि जानाति (ज्ञ) कहिए जाने है; तातै क्षेत्रज्ञ कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि अष्ट कर्मनि के अभ्यतर प्रवत है । अर निश्चय करि चैतन्य स्वभाव के अभ्यंतर प्रवर्ते है; तातै अंतरात्मा कहिए ।
चकार ते व्यवहार करि कर्म - नोकर्म रूप मूर्तीक द्रव्य के सबध ते मूर्तीक है; निश्चय करि अमूर्तीक है। इत्यादिक आत्मा के स्वभाव जानने । इनिका व्याख्यान इस पूर्व विष है । याके दोय लाख ते तेरह से कौ गुणिए जैसे - छब्बीस कोडि (२६०००००००) पद है।