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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ३५७ धर्म कहै है । इत्यादि इस अंग विर्षे कथन है । अथवा इस ही छठा अंग का दूसरा नाम ज्ञातृधर्मकथा है । सो याका अर्थ यह है - ज्ञाता जो गणधर देव, जानने की है इच्छा जाकै, ताका प्रश्न के अनुसारि उत्तर रूप जो धर्मकथा, ताकौं ज्ञातृधर्मकथा कहिए । जे अस्ति, नास्ति इत्यादिकरूप प्रश्न गणधरदेव कीये, तिनिका उत्तर इस अंग विष वर्णन करिये है । अथवा ज्ञाता जे तीर्थकर, गणधर, इंद्र, चक्रवादिक, तिनिकी धर्म संबंधी कथा इसविर्षे पाइये है । तातै भी ज्ञातृधर्मकथा असा नाम का धारी छठा अंग जानना।
तो वासयअन्झयणे, अंतयडे णुत्तरोववाददसे । पण्हाणं वायरणे, विवायसुत्ते य पदसंखा ॥३५७।।
तत उपासकाध्ययने, अंतकृते अनुत्तरौपपाददशे ।
प्रश्नानां व्याकरणे, विपाकसूत्रे च पदसंख्या ॥३५७॥ टीका - बहुरि तहां पीछे उपासते कहिये आहारादि दान करि वा पूजनादि करि संघ कौं सेवै; असे जे श्रावक, तिनिकौं उपासक कहिये । ते 'अधीयते' कहिये पढे, सो उपासकाध्ययन नामा सातवां अंग है । इस विष दर्शनिक, व्रतिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तविरति, रात्रिभक्तविरति, ब्रह्मचर्य, प्रारंभनिवृत्त, परिग्रहनिवृत्त, अनुमतिविरत, उद्दिष्टविरत ये गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमा वा व्रत, शील, आचार क्रिया, मंत्रादिक इनिका विस्तार करि प्ररूपण है।
बहुरि एक एक तीर्थंकर का तीर्थकाल विर्ष दश दश मुनीश्वर तीव्र चारि प्रकार का उपसर्ग सहि, इंद्रादिक करी करि हुई पूजा आदि प्रातिहार्यरूप प्रभावना पाइ, पापकर्म का नाश करि संसार का जो अंत, ताहि करते भये, तिनिको अतकृत कहिये तिनिका कथन जिस अंग में होइ ताकौ अंतकृद्दशांग आठवां अंग कहिये । तहां श्री वर्धमान स्वामी के बारे नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलिक, विकृविल, किष्कविल, पालंवष्ट, पुत्र ये दश भये । असे ही वृषभादिक एक एक तीर्थंकर के बारै दश दश अंतकृत् केवली हौं हैं । तिनिका कथन इस अग विष है।
बहुरि उपपाद है प्रयोजन जिनिका जैसे औपपादिक कहिये ।
बहुरि अनुत्तर कहिये विजय, वैजयंत, जयत, अपराजित, सर्वार्थ सिद्धि इनि विमाननि विर्षे जे औपपादिक होहिं उपजें, तिनिकौं अनुत्तरौपपादिक कहिये । सो