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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३५६
खाइए ? कैसे पाप कर्म न बंधै ? इत्यादि गणधर प्रश्न के अनुसार यतन ते चलिये, यत ते खडे रहिये, यतन तैं बैठिए, यतन ते सोइए, यतन ते बोलिए, यतन ते खाइये जैसे पापकर्म न बधै इत्यादि उत्तर वचन लीये मुनीश्वरनि का समस्त ग्राचरण इस आचारांग विषे वर्णन कीजिये है ।
बहुरि सूत्रयति कहिए संक्षेप ते अर्थ को सूचै, कहै, जैसा जो परमागम, सो सूत्र ताके अर्थकृतं कहिये कारणभूत ज्ञान का विनय आदि निर्विघ्न अध्ययन आदि क्रिया विशेष, सो जिसविषै वर्णन कीजिए है । अथवा सूत्र करि कीया धर्मक्रियारूप वा स्वमत - परमत का स्वरूप क्रिया रूप विशेष, सो जिस विषै वर्णन कीजिये, सो सूत्रकृत नामा दूसरा अग है ।
बहुरि तिष्ठन्ति कहिए एक आदि एक एक बधता स्थान जिस विषै पाइये, सो स्थान नामा तीसरा अंग है । तहां सा वर्णन है । संग्रह नय करि आत्मा एक है; व्यवहार नय करि संसारी अर मुक्त दोय भेद संयुक्त है । बहुरि उत्पाद, व्यय, श्रीव्य इनि तीन लक्षणनि करि संयुक्त है । बहुरि कर्म के वश तै च्यारि गति विष भ्रम है । तातें चतु संक्रमण युक्त है । बहुरि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, श्रदयिक, पारिणामिक भेद करि पंचस्वभाव करि प्रधान है । बहुरि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अधः भेद करि छह गमन करि संयुक्त है । ससारी जीव विग्रह गति विषै विदिशा में गमन न करें, श्रेणीबद्ध छहौ दिशा विषै गमन करें है । बहुरि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति वक्तव्य, स्यादस्तिनास्ति वक्तव्य इत्यादि सप्त भगी विषै उपयुक्त है । बहुरि आठ प्रकार कर्म का आश्रय करि सयुक्त है । बहुरि जीव, अजीव, आस्रव, बध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप ये नव पदार्थ है विषय जाके ऐसा नवार्थ है । बहुरि पृथ्वी, ग्रप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय भेद तँ दश स्थान है । इत्यादि जीव को प्ररुप है । बहुरि पुद्गल सामान्य अपेक्षा एक है; विशेष करि अणु स्कन्ध के भेद तै दोय प्रकार है, इत्यादि पुद्गल कौ रुपै है । जैसे एकने आदि देकर एक एक बधता स्थान इस अग विषै वरिगये है ।
बहुरि 'सं' कहिए समानता करि श्रवेयंते कहिये जीवादि पदार्थ जिसविषै जानिये, सो समवायांग चौथा जानना । इस विषै द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा समानता प्ररुपै है |