________________
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। ४४५ करि हो है। ताके अनन्तर पीछ ही देख्या जो पदार्थ ताके वर्ण संस्थानादि विशेष ग्रहणरूप अवग्रह नामा ज्ञान हो है।
इहां प्रश्न - जो गाथा विर्षे तौ पहिले दर्शन न कह्या, तुम कैसे कहो हो ?
ताका समाधान - जो अन्य ग्रंथनि में कहा है-'अक्षार्थयोगे सत्तालोकोर्थाकारविकल्पधीरवग्रहः' इद्रिय अर विषय के संयोग होते प्रथम सत्तावलोकन मात्र दर्शन हो है, पीछे पदार्थ का आकार विशेष जाननेरूप अवग्रह हो है - जैसा अकलंकाचार्य करि कहा है। बहुरि 'दंसरणपुव्वं गाणं छात्थाणं हवेदि रिणयमेण' छद्मस्थ जीवन के नियम ते दर्शन पूर्वक ही ज्ञान हो है जैसा नेमिचंद्राचार्यने द्रव्य - संग्रह नामा ग्रंथ में कहा है । बहुरि तत्त्वार्थ सूत्र की टीकावाले ने जैसा ही कह्या है; तातै इहा ज्ञानाधिकार विर्षे दर्शन का कथन न कीया तो भी अन्य ग्रंथनि ते जैसे ही जानना । सो अवग्रह करि तो इतना ग्रहण भया।
जो यह श्वेत वस्तु है, बहुरि श्वेत तौ बुगलनि की पंक्ति भी हो है, ध्वजा रूप भी हो है; परि बुगलेनि की पकतिरूप विषय कौं अवलबि यह बुगलेनि की पंकति ही होसी वा ध्वजारूप विषय कौं अवलंबि यहु ध्वजा होसी असा विशेष वाछारूप जो ज्ञान, ताकौ ईहा कहिए । बहुरि बुगलनि की यह पकति ही होसी कि ध्वजा होसी असा सशयरूप ज्ञान का नाम ईहा नाही है । वा बुगलनि पंकति विषै यहु ध्वजा होसी असा विपर्यय ज्ञान का नाम ईहा नाही है, जातै इहां सम्यग्ज्ञान का अधिकार है । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है । अर सशय, विपर्यय है, सो मिथ्याज्ञान है । तातै सशय विपर्यय का नाम ईहा नाही । जो वस्तु है, ताका यथार्थरूप असा ज्ञान करना कि यह अमुक ही वस्तु होसी; असे होसीरूप जो प्रतीति, ताका नाम ईहा है । अवग्रह तै ईहा विष विशेष ग्रहण भया; ताते याके वाके विष मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम का तारतम्य करि भेद जानना ।
ईहणकरणेण जदा, सुरिणण्णो होदि सो अवानो दु । कालांतरे वि गिग्णिव-वत्थु-समरणस्स कारणं तुरियं ॥३०॥
ईहनकरणेन यदा, सुनिर्णयो भवति स अवायस्तु । कालांतरेऽपि निर्णीतवस्तुस्मरणस्य कारणं तुर्यम् ॥३०९।।