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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा ३०८ गंन :द्रिय के समीपवर्ती स्कंध परिणए है; तिनिके स्पर्श ते स्पर्श ज्ञान हो है । ने ही प्राम्लादि वस्तु के निमित्त ते स्कंध तद्रूप परिणवै है, तहां रसना इंद्रिय के नमीपवर्ती जो स्कंध परिणए, तिनिके संयोग से रस का ज्ञान हो है । बहुरि यहु श्रुत ज्ञान के वल करि, जाके निमित्त ते शब्द आदि भए ताको जानि, असा मान है कि में दूरवर्ती वस्तु को जान्या, असे दूरवर्ती वस्तु के जानने विषै भी प्राप्त होना सिद्ध भया। पर समीपवर्ती को तो प्राप्त होकर जान ही है । इहां शब्दादिक परमाणु पर गर्गादिक इंद्रिय परस्पर प्राप्त होइ, अर यावत् जीव के व्यक्त ज्ञान न होइ तावत् व्यजनावगह है, व्यक्तनान भए अर्थावग्रह हो है । बहुरि मन अर नेत्र दूर ही तै जाने है, असा नाही; जो शब्दादिक की ज्यो जाने है, तातै पदार्थ तौ दूरि तिष्ठै है हो, जब उन नै ग्रह, तव व्यक्त ही ग्रहै; तातै व्यंजनावग्रह इनि दोऊनि के नाही; पर्यावग्रह ही है। उक्त च
पुठ्ठ सुणेदि सइं, अपुढें पुरण पस्सदे- रूवं ।।
गंधं रसं च फासं, बद्धं पुठं वियाणादि ॥१॥ वहरि नैयायिकमतवाले असा कहै है - मन पर नेत्र भी प्राप्त होइ करि ही बन्नु की जान है। ताका निराकरण जैनन्याय के शास्त्रनि विर्ष अनेक प्रकार कीया है। वहरि व्यंजन जो अव्यक्त शब्दादिक, तिनि विर्ष स्पर्शन, रसन, प्राण, श्रोत्र निगनि करि केवल अवग्रह ही हो है; ईहादिक न हो है। जाते ईहादिक तौ एकदेग या मयंदेश व्यक्त भए ही हो है । व्यजन नाम अव्यक्त का है, तातै च्यारि यिनि करि व्यजनावग्रह के च्यारि भेद है ।
विसयारणं विसईणं, संजोगाणंतरं हवे णियमा। अवगहणाणं गहिदे, विसेसकंखा हवे ईहा ॥३०८॥ विपयाणां विपयिणां, संयोगानंतरं भवेनियमात् ।
मयाजानं गृहीते, विशेषाकांक्षा भवेदोहा ॥३०८॥ arr-निपय गो गब्दादिक पदार्थ अर विषयी जे कर्णादिक इंद्रिया, इनिका -
चोय क्षेप वि निष्ठनेम्प सवध, ताकी होतें मंते ताके अनंतर ही मानकर पानी यह है, इतना प्रकाणरूप, सो दर्णन नियम