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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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किमिराय - चक्क तणु- मल-हरिद्द-राएण सरिसओ लोहो । णारय-तिरिक्ख माणुस - देवेसुप्पायो कमसो ॥२८७॥
टीका - क्रिमिराग, चक्रमल, तनुमल, हरिद्वाराग समान जो लोभ विषयाभिलाषरूप परिणाम, सो क्रम ते नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विषे उपजावै है । सोई कहिए है -
क्रिमिरागचक्रतनुमलहरिद्वारागेण सदृशो लोभः । नारकतिर्यग्मानुषदेवेषु उत्पादकः क्रमशः ॥ २८७ ॥
जैसे क्रिमिराग कहिए किरमिची रंग, सो बहुत घने काल गये बिना नष्ट न होइ, तैसे जो बहुत घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीए लोभ, सो जीव कीं नरकगति विषै उपजावै है ।
बहुरि जैसे चक्रमल जो पहिये का मैल, सो घने काल बिना नष्ट न होइ, तैसे घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं लोभ, सो जीवको तिर्यच गति विषे उपजा है ।
बहुरि जैसें तनुमल, जो शरीर का मैल, सो थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे थोरा काल बिना नष्ट न होइ जैसा जो अजघन्य शक्ति लीएं लोभ, सो जीव को मनु य गति विषं उपजाव है ।
बहुरि जैसे हरिद्राराग कहिए हलद का रंग सो बहुत थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे बहुत थोरे काल बिना नष्ट न होइ, असा जो जघन्य शक्ति लीए लोभ, सो जीव को देव गति विषै उपजावै है । जैसे जिन-जिन कषायनि तै जो-जो गति का उपजना का, तिन तिन कषायनि ते तिस ही तिस गति सबंधी प्रयु वा श्रानुपूर्वी इत्यादिक का बंध जानना ।
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खारय-तिरिक्ख-पर-सुर- गईसु उप्पण्णपढमकालन्हि ।
कोहो माया मारणो, लोहुदग्रो अणियमो वाऽपि ॥ २८८ ॥
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नारकतिर्यग्नरसुरगतिषूत्पन्नप्रथमकाले ।
क्रोधो माया मानो, लोभोदयः श्रनियमो वाऽपि ॥२८८॥
पट्खडागम-घवला, पुस्तक १, पृ. ३५२, गा स १७७.