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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[४.७ शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय तै लगाइ अंत समय पर्यत द्रव्य स्त्री होइ है।
वहरि निर्माण नामा नामकर्म का उदय ते संयुक्त नपुसक वेदरूप आकार का विशेष लीएं अंगोपांग नामा नामप्रकृति के उदय ते मूछ, डाढी इत्यादि वा स्तन, योनि इत्यादिक दोऊ चिह्न रहित शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय ते लगाइ अंत समय पर्यत द्रव्य नपुसक हो है ।
सो प्रायेण कहिए बहुलता करि तौ समान वेद हो है । जैसा द्रव्यवेद होइ तैसा ही भाव वेद होइ बहुरि कही समान वेद न हो है, द्रव्यवेद अन्य होइ, भाव वेद अन्य होइ। तहां देव अर नारकी अर भोग भूमिया तिर्यच, मनुष्य इनिकै तौ जैसा द्रव्य वेद है, तैसा ही भाव वेद है। बहुरि कर्मभूमियां तिर्यच अर मनुष्य विषै कोई जीवनि के तौ जैसा द्रव्य वेद हो है, तैसा ही भाव वेद है, बहुरि केई जीवनि के द्रव्य वेद अन्य हो है अर भाव वेद अन्य हो है । द्रव्य तें पुरुष है अर भाव ते पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री वेदी है । वा स्त्री अर पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप नपुंसकवेदी है। जैसे ही द्रव्य तें स्त्रीवेदी है अर भाव से स्त्रीका अभिलाषरूप पुरुषवेदी है । वा दोऊनि का अभिलाषरूप नपुसक वेदी है । बहुरि द्रव्य ते नपुसक वेदी है। भाव ते स्त्री का अभिलाषरूप पुरुष वेदी है । वा पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री वेदी है। जैसा विशेष जानना, जाते आगम विष नवमा गुणस्थान का सवेद भाग पर्यत भाव ते तीन वेद है । अर द्रव्य ते एक पुरुष वेद ही है, असा कथन कह्या है।
वेदस्सुदीरणाए, परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो । संमोहेण ण जाणदि, जीवो हि गुणं व दोषं वा ॥२७२॥
वेदस्योदीरणायां, परिणामस्य च भवेत्संमोहः ।
संमोहेन न जानाति, जीवो हि गुणं वा दोषं वा ॥२७२॥ टीका - मोहनीय कर्म की नोकषायरूप वेद नामा प्रकृति, ताका उदीरणा वा उदय, तीहि करि आत्मा के परिणामनि को रागादिरूप मैथुन है नाम जाका जैसा सम्मोह कहिए चित्त विक्षेप, सो उपज है। तहा बिना ही काल आए कर्म का फल निपजै, सो उदीरणा कहिए । काल आएं फल निपजे, सो उदय कहिए । बहुरि उस सम्मोह के उपजने से जीव गुण को वा दोष को न जान, असा अविवेक रूप