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________________ ३९८ ) [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६०-२६१ बहुरि बादर पर्याप्त वातकायिक जीव लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण कहे थे । तिनि विषै पल्य का असंख्यातवां भाग प्रमाण जीव, विक्रिया शक्ति युक्त जानने । जातै 'बादरतेऊवाऊपंचेदिययुण्णगा विगुव्वंति' इस गाथा करि बादर पर्याप्त अग्निकायिक अर पवनकायिक जीवनि के वैक्रियिक योग का सद्भाव कह्या है । पल्लासंखेज्जाहयविदंगुलगुणिदसेढिमेत्ता हु। वेगुन्वियपंचक्खा, भोगभुमा पुह विगुव्वंति ॥२६०॥ पल्यासंख्याताहतवृंदांगुलगुरिणत श्रेणिमात्रा हि । वैविकपंचाक्षा, भोगभुमाः पृथक् विगूर्वति ॥२६०॥ टीका - पल्य का असंख्यातवा भाग करि घनांगुल को गुणै, जो परिमाण होइ, ताकरि जगच्छेणी गुण, जो परिमाण आवै, तितने वैक्रियिक योग के धारक पर्याप्त पंचेद्री तिर्यच वा मनुष्य जानने । तहां भोगभूमि विषै उपजे तिर्यच वा मनुष्य अर कर्मभूमि विष चक्रवर्ती ए पृथक् विक्रिया को भी कर है । इनि विना सर्व कर्मभूमियानि के अपृथक् विक्रिया ही है । जो मूलशरीर तै जुदा शरीरादि करना, सो पृथक् विक्रिया जाननी । अपने शरीर ही को अनेकरूप करना, सो अपृथक् विक्रिया जाननी । देवेहि सादिरेया, तिजोगिणो तेहिं हीण तसपुण्णा । बियजोगिणो तदूणा, संसारी एक्कजोगा हु ॥२६१॥ देवैः सातिरेकाः, त्रियोगिनस्तैीनाः त्रसपूर्णाः । द्वियोगिनस्तदूना, संसारिणः एकयोगा हि ॥२६१॥ टीका - देवनि का जो परिमाण साधिक ज्योतिष्कराशि मात्र कह्या था; तीहि विष घनांगुल का द्वितीय मूल करि गुणित जगच्छे,णी प्रमाण नारकी अर संख्यात पणट्ठी प्रतरांगुल करि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण संज्ञी पर्याप्त तिर्यंच पर वादाल का घन प्रमाण पर्याप्त मनुष्य इनिको मिलाएं, जो परिमाण होइ, तितने त्रियोगी जानने । इनिकै मन, वचन, काय तीनों योग पाइए है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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