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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
[ ३९७ बहुरि आयु का अन्यथा लक्षण है, जातै आयु का अपकर्षण कालनि वि वा असंक्षेप अत काल विर्षे ही बंध हो है । बहुरि आबाधा काल पूर्व भव विर्ष व्यतीत हो है । तातै आयु की जितनी स्थिति, तितनी ही निषेकनि की रचना जाननी । आबाधाकाल घटावना नाही । बहुरि आयुकर्म का उत्कृष्ट संचय कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी जलचर जीव के हो है । तहा कर्मभूमियां मनुष्य कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी यथायोग्य संक्लेश वा उत्कृष्ट योग करि पर भव संबंधी कोटिपूर्व वर्ष का आयु जलचर विष उपजने का बाध्या, सो आगै कहिएगी योग यवमध्य रचना, ताका ऊपरि स्थान विषै अतर्मुहूर्त तिष्ठ्या , बहुरि अंत जीव गुणहानि का स्थान विषै प्रावली का असख्यातवा भागमात्र काल तिष्ठ्या, क्रम ते काल गमाइ, कोडिपूर्व आयु का धारी जलचर विष उपज्या । अतमुहूर्त करि सर्व पर्याप्तनि करि पर्याप्त भया । अंतर्मुहूर्त करि बहुरि परभव सबंधी जलचर विष उपजने का कोडिपूर्व आयु को बांधे है। तहां दीर्घ आयु का बंध काल करि यथायोग्य संक्लेश करि उत्कृष्ट योग करि उत्कृष्ट योग करि बाध है । सो योग यवरचना का अंत स्थानवी जीव बहुत बार साता कौ काल करि युक्त होता अपने काल विष पर भव सबंधी आयु को घटावै, ताकै आयु-वेदना द्रव्य का प्रमाण उत्कृष्ट हो है; सो द्रव्य रचना सस्कृत टीका तै जाननी । या प्रकार औदारिक आदि शरीरनि का बध, उदय, सत्त्व विशेष जानने के अथि वर्णन कीया ।
आगै श्री माधवचद्र विद्यदेव बारह गाथानि करि योग मार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या कहै है -
बादरपुण्णा तेऊ, सगरासीए असंखभागमिदा । विक्किरियसत्तिजुत्ता, पल्लासंखेज्जया वाऊ ॥२५६।।
बादरपूर्णाः, तैजसाः, स्वकराशेरसंख्यभागमिताः ।
विक्रियाशक्तियुक्ताः, पल्यासख्याता वायवः ॥२५९॥ टीका - बादर पर्याप्त तेजकायिक जीव, तिनि विर्षे उन ही जीवनि का जो पूर्व परिमाण आवली के घन का असंख्यातवां भागमात्र कह्या था, तिस राशि की असख्यात का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जीव विक्रिया शक्ति करि सयुक्त जानने ।