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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
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टीका इस गाथा विषे नित्य निगोद का लक्षण कह्या है | अनादि ससार विषें निगोद पर्याय ही को भोगवते अनंते जीव नित्यनिगोद नाम धारक सदाकाल हैं । ते कैसे हैं ? जिनि करि त्रस जे बेइंद्रियादिक, तिनिका परिणाम जो पर्याय, सो कबहूं न पाया । बहुरि भाव जो निगोद पर्याय, तिहिनै कारणभूत जो कलंक कहिये कषायनि का उदय करि प्रगट भया अशुभ लेश्यारूप, तीहि करि प्रचुरा कहिये अत्यंत संबंधरूप है । जैसे ए नित्यनिगोद जीव कदाचित् निगोदवास कों न छोडै है । याही निगोद पर्याय के आदि अंत रहितपनां जानि, अनंतानंत जीवनि के नित्य निगोदपना का | नित्य विशेषरण करि अनित्य निगोदिया चतुर्गति निगोदरूप आदि अंत निगोद पर्याय संयुक्त केई जीव है, जैसा सूचै है । जातै खिच्चचदुग्गदिणिगोद इत्यादिक परमागम विषे निगोद जीव दोय प्रकार कहै है ।
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भावार्थ - जे अनादि तै निगोद पर्याय ही कौ धरे हैं, ते नित्यनिगोद जीव है । बहुरि बीच अन्य पर्याय पाय, बहुरि निगोद पर्याय धरे, ते इतर निगोद जीव जानना | सो वे आदि अत लीये है । बहुरि जिनिके प्रचुर भाव कलंक है, ते निगोदवास कौं न छाडे, सो इहां प्रचुर शब्द है, सो एकोदेश का प्रभावरूप है, सकल अर्थ का वाचक है; ता याकरि यहु जान्या, जिनके भाव कलंक थोरा हो है, ते जीव कदाचित् नित्यनिगोद ते निकसि, चतुर्गति में आवै है । सो छह महीना अर आठ समय मै छ: से आठ जीव नित्यनिगोद में सौ निकसे है, सो ही छह महीना आठ समय में छ. सेठ जीव संसार सौ निकति करि मुक्ति पहॅ ुचे है ।। १६७ ।।
काय की प्ररूपणा दोय गाथा करि कहै है
बिहि तिहि चहिं पंचहिं, लहिया जे इंदिएहि लोयसि । ते तसकाया जीवा, या वोरोवदेसेण ॥१६८ ॥
द्वाभ्यां त्रिभिचतुभिः पंचभिः सहिता ये इंद्रियैलोंके । ते सकाया जीवा, ज्ञेया वीरोपदेोन ॥ १९८ ॥
टीका - दोय इद्री स्पर्शन - रसन, तिनि करि संयुक्त द्वीद्रिय, बहुरि तीन इंद्रिय स्पर्शन - रसन - प्राण, तिनि करि सयुक्त त्रीद्रिय, बहुरि च्यारि इंद्रिय स्पर्शन - रसन घ्राण-चक्षु, इनि करि सयुक्त चतुरिद्रिय बहुरि पाच इंद्रिय स्पर्शन-रसन - घ्राण- चक्षुश्रोत्र, इनि करि संयुक्त पचेद्रिय, ए कहे जे जीव, ते त्रसकाय जानने । से श्री वर्धमान