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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाहीका ] [ ३२५ कीए अगले स्थान विष सख्यात घनागुल प्रमाण अवगाहना हो है।।', तातै तिस बियालीसवा स्थान विष घनांगुल को असख्यात का भाराहार,प्रकट ही सिद्धि भया । तहां सूक्ष्म अपर्याप्त वातकाय की जघन्य अवगाहना वा पृथ्वीकाय बादर पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण, तहां ही जीवसमांसाधिकार विषै कह्या है, सो जानना । बहुरि 'आधारे थूलाओं आधारे कहिए अन्य पुद्गलनि का आश्रय, तीहि विषे वर्तमान शरीर संयुक्त जे जीव, ते सर्व स्थूलः “कहिए बादर · जानने । यद्यपि आधार करि तिनके शरीर का बादर स्वभाव रुकना न हो है; तथापि नीचे गिरना रूप जो गमन, ताका रुकना हो है, सो तहां प्रतिघात संभव है । तातै पूर्वोक्त घातरूप लक्षण ही बादर शरीरनि का दृढ भया ।। वहुरि सर्वत्र लोक वि, जल विष वा स्थल विष वा आकाश विष निरंतर आधार की अपेक्षा रहित जिनके शरीर पाइए, ते. जीव सूक्ष्म है। जल-स्थल रूप आधार करि तिनिकै शरीर के गमन का नीचे ऊपरि इत्यादि कही भी रुकना न हो है । अत्यत सूक्ष्म परिणमन ते ते जीव सूक्ष्म कहिए है । अंतरयति कहिए अतराल कर है, असा जो अंतर कहिए आधार, तातै रहित ते निरंतर कहिए । इस विशेषण करि भी पूर्वोक्त ही लक्षण दृढ भया । 'यो असा. संबोधन पद जानना । याका अर्थ यहु- जो हे शिष्य । अस तू जानि । बहुरि यद्यपि बादर अपर्याप्त वायुकायिकादि जीवनि की अवगाहना स्तोक है । बहुरि यौते सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिकादिक पृथ्वीकायिक पर्यत जीवनि की जघन्य वा उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात गुणी है । तथापि सूक्ष्म नामकर्म के उदय की समर्थता ते अन्य पर्वतादिक तें भी तिनिका रुकना न हो है; निकसि जाय है । जैसे जल का बिदु वस्रतै निकसि जाय; रुकै नाही, तैसे सूक्ष्म शरीर जानना। बहुरि बादर नामकर्म के उदय के वश तें अन्यकरि रुकना हो है । जैसे सरिसौ वस्त्र ते निकस नाही, तैसै बादर शरीर जानना। .. बहुरि यद्यपि ऋद्धि को प्राप्त भए मुनि, देवं इत्यादिक, तिनिका शरीर बादर है; तो भी ते वज़ पर्वतादिक ते रुकै नाही, निक़सि जांय है, सो यहु तपजनित अतिशय की महिमा है, जातै तप, विद्या, मणि, मंत्र, औषधि इनिकी शक्ति के अतिशय का महिमा अचिंत्य है, सो दीखै है । जैसा ही द्रव्यत्व का स्वभाव है । बहुरि स्वभाव विषै किछू तर्क नाही । यहु समस्त वादी मान है । सो इहां अतिशयवानों का ग्रहण
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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