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________________ ३१८ ) [ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा १७४-१७५५ असख्यात भाग मात्र हो है, सोइ है । वहुरि उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभू रमण समुद्र विर्ष महामच्छ का उत्कृष्ट शरीर सख्यात घनागुल मात्र हो है, सो है - आगै इन्द्रियज्ञानवाले जीवनि को कहि । अब अतींद्रिय ज्ञानवाले जीवनि का निरूपण कर है - ण वि इंदियकरणजुदा, अवग्गहादीहिं गाहया अत्थे । रणेव य इंदियसोक्खा, अणिहियारणंतरणारणसुहा ॥१७४॥ नापि इंद्रियकरणयुता, अवग्रहादिभिः ग्राहकाः अर्थे । नैव च इंद्रियसौख्या, अनिद्रियानंतज्ञानसुखाः ॥१७४॥ टीका - जे जीव नियम करि इन्द्रियनि के करण भोहै टिमकारना आदि व्यापार, तिनिकरि संयुक्त नाही है, ताते ही अवग्रहादिक क्षयोपशम ज्ञान करि पदार्थ का ग्रहण न करै है । बहुरि इन्द्रियजनित विषय संबंध करि निपज्या सुख, तिहिकरि संयुक्त नाही है, ते अर्हत वा सिद्ध अतीद्रिय अनंत ज्ञान वा अतीद्रिय अनंत सुखकरि विराजमान जानने; जाते तिनिका ज्ञान पर सुख सो शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि ते उत्पन्न भया है। आगे एकेद्रियादि जीवनि की सामान्यपन संख्या कहै है - थावरसंखपिपीलिय, भमरमणुस्सादिगा सभेदा जे । जुगवारमसंखज्जा, रणंतारणंता णिगोदभवा ॥१७॥ स्थावरशंखपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिकाः सभेदा ये । युगवारमसख्येया, अनंतानंता निगोदभवाः ।।१७५॥ टोका - स्थावर जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पती ए - पंच प्रकार तो एकेद्री। बहुरि संख, कौडी, लट इत्यादि बेद्री। बहुरि कीडी, मकोडा इत्यादि तेद्रो। बहुरि भ्रमर, माखी, पतंग इत्यादि चौ इन्द्री । वहुरि मनुष्य, देव, नारकी अर जलचरादि तिर्यंच, ते पंचद्रो । ए जुदे-जुदे एक-एक असंख्यातासख्यात प्रमाण हैं। वहुरि निगोदिया जो साधारण वनस्पती रूप एकेद्री ते अनंतानत है । १. पट्पटागम - घवना पुन्तक १, पृष्ठ २५१, गाथा १४० ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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