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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ ३१७ प्रागै निर्वृत्तिरूप द्रव्येद्रिय स्पर्शनादिकनि का आकार कह्या, सो कितने-कितने क्षेत्र प्रदेश को रोक-पैसा अवगाहना का प्रमाण कहै है - अंगुलअसंखभागं, संखेज्जगुरणं तदो विसेसहियं । तत्तो असंखगुणिदं, अंगुलसंखेज्जयं तत्तु ॥१७२॥ अंगुलासंख्यभाग, संख्यातगुणं ततो विशेषाधिक । ततोऽसंख्यगुरिणतमंगुलसंख्यातं तत्तु ॥ १७२ ॥ टीका - घनांगुल के असख्यातवे भाग प्रमाण आकाश प्रदेशनि को चक्षु इन्द्रिय रोके है। सो धनागुल को पल्य का असख्यातवा भाग करि तौ गुणीए अर एक अधिक पल्य का असख्यातवा भाग का अर दोय वार सख्यात का अर पल्य का असख्यातवा भाग का भाग दीजिये, जो प्रमाण आवै, तितना चक्षु इन्द्रिय की अव-गाहना है । बहुरि यातै संख्यातगुरणा श्रोत्र इन्द्रिय की अवगाहना है । यहां इस गुरणकार करि एक बार संख्यात कै भागहार का अपवर्तन करना । बहुरि याको पल्य का असख्यातवा भाग का भाग दीए, जो परिमाण आवै, तितना उस ही श्रोत्रइद्रिय की अवगाहना विष मिलाए, घ्राण इन्द्रिय की अवगाहना होइ । सो इहा इस अधिक प्रमाण करि एक अधिक पल्य का असख्यातवा भाग का भागहार अर पल्य का असख्यातवा भाग गणकार का अपवर्तन करना । बहुरि याको पल्य का असख्यातवा भाग करि गणीए, तब जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना होइ । इस गुण कार करि पल्य का असंख्यातवा भागहार का अपवर्तन करना। ऐसे यहु जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना घनांगुल के सख्यातवे भाग मात्र जानना । आगे स्पर्शन इन्द्रिय के प्रदेशनि की अवगाहना का प्रमाण कहै है - सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयसि । अंगुल असंखभाग, जहण्णमुक्कस्सयं लच्छे ॥१७३॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये । अगुलासंख्यभागं, जघन्यत्कृष्टक मत्स्ये ॥१७३॥ टीका - स्पर्शन इन्द्रिय की जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपप्तिक के उपजनै ते तीसरा समय विर्ष जो जघन्य शरीर का अवगाहना घनागुल के
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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