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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
दीव्यंति यतो नित्यं, गुणैरष्टाििदव्यभावः ।
भासमानदिव्यकायाः, तस्मात्ते वरिणता देवाः ॥१५१॥ टीका - जाते जे जीव नित्य ही दीव्यंति कहिए कुलाचल समुद्रादिकनि विष क्रीडा करै है, हर्ष करे है, मदनरूप हो है-कामरूप हो है। बहुरि अणिमा को आदि देकरि मनुष्य अगोचर दिव्यप्रभाव लीए गुण, तिनिकरि प्रकाशमान है । बहुरि-धातु-मल रोगादिक दोष, तिनिकरि रहित है । देदीप्यमान, मनोहर शरीर जिनिका असे है। तात्तै ते जीव देव है, औसै पागम विष कह्या है । असै निरुक्तिपूर्वक लक्षण करि च्यारि गति कही।
यहा जे जीव सातौ नरकनि विष महा दु ख पीडित है, ते नारक जानने । बहुरि एकेद्री, बेद्री, तेद्री, चौइंद्री, प्रसज्ञी पचेद्रो पर्यत सर्व ही अर जलचरादि पंचेद्री ते सर्व तिर्यच जानने । बहुरि आर्य, म्लेच्छ, भोगभूमि, कुभोगभूमि विषै उत्पन्न मनुष्य जानने । भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी, वैमानिक भेद लीएं देव जानने ।
प्रागै संसार दशा का लक्षण रहित जो सिद्धगति ताहि कहै है - जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ। रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्धगई ॥१५२॥ जातिजरामरणभयाः, संयोगवियोगदुःखसजाः ।
रोगादिकाश्च यस्या, न संति सा भवति सिद्धगतिः ॥१५२।। टीका - जन्म, जरा, मरण, भय, अनिष्ट सयोग, इष्टवियोग, दुख, सज्ञा, रोगादिक नानाप्रकार वेदना जिहिविष न होइ सो समस्तकर्म का सर्वथा नाश ते प्रकट भया सिद्ध पर्यायरूप लक्षण को धरै, सो सिद्धगति जाननी । इस गति विर्ष संसारीक भाव नाही, तातै ससारीक गति की अपेक्षा गति मार्गणा च्यारि प्रकार ही कही।
मुक्तिगति की अपेक्षा तीहि मुक्तिगति का नाम कर्मोदयरूप लक्षण नाही है । ताते याकी गतिमार्गणा विप विवक्षा नाही है ।
आगै गतिमार्गणा विषै जीवनि की संख्या कहै है । तहा प्रथम ही नरक गति विषै गाथा दोयकरि कहै है
१. षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाया १३२