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________________ मम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] उवयररणदंसणेण य, तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ॥ १३८ ॥ उपकररणदर्शनेन च, तस्योपयोगेन मूछिताये च । लोभस्योदीररया परिग्रहे जायते संज्ञा ॥ १३८ ॥ टीका - धन-धान्यादिक बाह्य परिग्रहरूप उपकरण सामग्री का देखना अर तीहि धनादिक की कथा का सुनना, यादि करना इत्यादिक उपयोग होना, मूर्छित जो लोभी, ताकै परिग्रह उपजावने विषै आसक्तता, ताका इस जीव सहित सम्बन्धी होना इत्यादिक बाह्य कारण है । बहुरि लोभ कषाय की उदीरणा, सो अंतरंग कारण है । इनि कारणनि करि परिग्रह संज्ञा हो है । परिग्रह जो धन-धान्यादिक, तिनिके उपजावने प्रादिरूप वांछा, सो परिग्रह संज्ञा जाननी । प्रागे ए संज्ञा कौन के पाइए, सो भेद कहै है - रगट्ठपमाए पढमा, सण्णा रहि तत्थ कारणाभावा । सेसा कम्मत्थित्तेणुवयारेणत्थि गहि कज्जे ॥ १३६ ॥ - [ २८३ नष्टप्रमादे प्रथमा, संज्ञा नहि तत्र कारणाभावात् । शेषाः कर्मास्तित्वेन उपचारेण संति नहि कार्ये ॥१३९॥ नष्ट भये है प्रमाद जिनिके, ऐसे जे श्रप्रमत्तादि गुणस्थानवर्ती जीव, टीका तिनिकै प्रथम आहार सज्ञा नाही है । जाते आहार संज्ञा का काररणभूत जो असाता वेदनीय की उदीरणा, ताकी व्युच्छित्ति प्रमत्त गुणस्थान ही विषै भई है; तातै कारण के अभाव तै कार्य का भी प्रभाव है । ऐसे प्रमाद रहित जीवनि के पहिली सज्ञा नाही है । बहुरि इनि कै जो अवशेष तीन संज्ञा है, सो भी उपचार मात्र है; जाते उन सज्ञानि का कारणभूत जे कर्म, तिनि का उदय पाइए है; तीहि अपेक्षा है । बहुरि ते भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञा अप्रमादी जीवनि के कार्यरूप नाही है । इति श्री आचार्य नेमिचद्रविरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भाषा टीका विषै जीवकाण्ड विषै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनिविपै संज्ञा प्ररूपणा नाम पंचम अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ ५ ॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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