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________________ पाँचवां अधिकार : संज्ञा प्ररूपणा मंगलाचरण गुण अनंत पाए सकल, रज रहस्य अरि जीति । दोषरहित जगस्वामि सो, सुमति नमो जुत प्रीति ।। अथ संज्ञा प्ररूपणा कहै है - इह जाहि बाहयावि य, जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंतावि य उभये, ताओ चत्तारि सणाओ ॥ १३४ ॥ इह याभिर्बाधिता अपि च, जीवाः प्राप्नुवति दारुणं दुक्खं । सेवमाना अपि च, उभयस्मिन ताश्चतसः संज्ञाः ॥ १३४ ॥ टीका - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इनिके निमित्त ते जो वांछा होइ, ते च्यारि संज्ञा कहिए । सो जिनि संज्ञानि करि बाधित, पीडित हुए जीव ससार विष विषयनि को सेवते भी इहलोक अर परलोक विष तिनि विषयनि की प्राप्ति वा अप्राप्ति होते दारुण भयानक महा दुःख को पावै है, ते च्यारि सज्ञा जाननी। वाछा का नाम सज्ञा है । वांछा है, सो सर्व दुःख का कारण है । आगे आहार संज्ञा उपजने के बाह्य, अभ्यंतर कारण कहै है - आहारदंसरणेण य, तस्सुवजोगेण ओमकोठाए । सादिदरुदीरणाए, हवदि हु आहारसण्णा हु ॥ १३५॥ आहारदर्शनेन च, तस्योपयोगेन अवमकोष्ठतया । सातेतरोदीरण्या, भवति हि आहारसंज्ञा हि ॥ १३५ ।। टीका - विशिष्ट अन्नादिक च्यारि प्रकार आहार का देखना, बहुरि पाहार का यादि करना, कथा सुनना इत्यादिक उपयोग का होना, वहरि कोठा जो उदर, ताका खाली होनो क्षधा होनी ए तो वाह्य कारण है। वहरि असाता वेदनीय कम का तीव्र उदय होना वा उदीरणा होनी अतरंग कारण है । इनि कारणनि ते आहार
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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