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चौथा अधिकार : प्राण प्ररूपणा
अभिनंदन वंदौ सदा, सठि प्रकृति खिपाय ।
जगतनमतपद पाय, जिनधर्म कह्यो सुखदाय ॥ अथ प्राण प्ररूपणा को निरूपै हैं -
बाहिरपारणेहिं जहा, तहेव अब्भंतरहिं पारणेहिं । पारणंति जेहि जीवा, पाणा ते होंति रिणद्दिट्ठा ॥ १२६ ॥
बाह्यप्राणैर्यथा, तथैवाभ्यंतरैः प्राणैः ।
प्राणंति यैर्नीवाः, प्राणास्ते भवन्ति निदिष्टाः ॥ १२९ ॥ टीका -जिनि अभ्यंतर भाव प्राणनि करि जीव हैं, ते प्राणंति कहिए जीव है; जीवन के व्यवहार योग्य हो है, कौनवत् ? जैसै बाह्य द्रव्य प्राणनि करि जीव जीव है, जातै यथा शब्द दृष्टातवाचक है; तातै जे आत्मा के भाव है, तेई प्राण हैं जैसा कह्या है। जैसे कहने ही करि प्राण शब्द का अर्थ का जानने का समर्थपणा हो है, तातै तिस प्राण का लक्षण जुदा न कह्या है । तहा पुद्गल द्रव्य करि निपजे जे द्रव्य इद्रियादिक, तिनके प्रवर्तनरूप तो द्रव्य प्राण है। बहुरि तिनिका कारणभूत ज्ञानावरण अर वीर्यान्तराय के क्षयोपशमादिक ते प्रकट भए चैतन्य उपयोग के प्रवर्तनरूप भाव प्राण हैं।
इहां प्रश्न - जो पर्याप्ति अर प्राण विषै भेद कहा ?
ताका समाधान - पंच इद्रियनि का आवरण का क्षयोपशम ते निपजे असे पाच इंद्रिय प्राण है । बहुरि तिस क्षयोपशम ते भया जो पदार्थनि के ग्रहण का समर्थपना, ताकरि जन्म का प्रथम समय ते लगाइ अतर्मुहूर्त ऊपरि निपजै असी इद्रिय पर्याप्ति है । इहां कारण-कार्य का विशेष है ।
बहुरि मन सम्बन्धी ज्ञानावरण का क्षयोपशम का निकट ते प्रगट भई सी मनोवर्गरणा करि निपज्या द्रव्य मन करि निपजी जो जीव की शक्ति, सो अनुभया पदार्थ को ग्रहण करि उपजी, सो अंतर्मुहूर्त मनःपर्याप्ति काल के अन्ति सपूर्ण भई,