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________________ सम्यग्जानचन्द्रिका भाषाटीका ] । २५५ छोडे, तिस काल के समयनि का प्रमाण जानना । इहां निगोद जीव निगोद पर्याय को छोडि अन्य पर्याय उत्कृप्टपनै यावत् काल न धरै, तिस काल का ग्रहण न करना; जातै सो काल अढाई पुद्गल परिवर्तन परिमारण है, सो अनंत है; तातै ताका इहां ग्रहण नाहीं । बहुरि तातें असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान जाइ, उत्कृष्ट योग स्थाननि के अविभाग प्रतिच्छेदनि का वर्गशलाका अर अर्धच्छेद पर प्रथम मूल हो है । याका एक बार वर्ग कीए एक-एक समान प्रमाणरूप चय करि अधिक असे जो जगतश्रेणी के असंख्यातवै भाग प्रमाण योग स्थान है, तिनिविर्षे जो उत्कृष्ट योग स्थान हैं, ताके अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण हो है। ते लोक प्रमाण जे एक जीव के प्रदेश, तिनिविर्षे कर्म-नोकर्म पर्यायरूप परिणमने को योग्य जे तेइस वर्गणानि विर्षे कार्माण वर्गणा अर आहार वर्गणा, तिनिकौ तिस कर्म-नोकर्म पर्यायरूप परिणमने विषै प्रकृतिबंध पर प्रदेशबंध का कारणभूत जानने । बहुरि तातै अनंतानंत वर्गस्थान जाइ केवलज्ञान का चौथा मूल का धन का घन हो है, सो केवलज्ञान का प्रथम मूल अर चतुर्थ मूल को परस्पर गुण जो प्रमाण होइ, तीहि मात्र है । जैसें अंकसंदृष्टि करि केवलज्ञान का प्रथम पणट्ठी (६५५३६), ताका प्रथम मूल दोय सै छप्पन, चतुर्थ मूल दोय, इनिको परस्पर गुण पांच से बारह होई, चतुर्थ मूल दोय का घन आठ, ताका घन पांच से बारह हो है, सो यह द्विरूप घनाघनधारा का अंतस्थान है, याते अधिक का घनाघन कीए केवलज्ञान तै उल्लघन हो है, सो है नही । बहुत कहने करि कहा ? द्विरूप वर्गधारा विष जिस-जिस स्थान विषै जिस-जिस राशि का वर्ग ग्रहण कीया, तिस-तिस राशि कौ तिस-तिस स्थान विष नव जायगा माडि, परस्पर गुणै इस द्विरूप घनाघन धारा विपै प्रमाण हो है। इस धारा के सर्वस्थान च्यारि घाटि केवलज्ञान का वर्गशलाका मात्र है । औसै इहा सर्वधारा अर द्विरूपवर्गादिक तीन धारानि का प्रयोजन जानि विशेष कथन कह्या । अब शेष सम, विषम, कृति, अकृति, कृतिमूल, अकृतिमूल, घन, अघन, घनमूल अघनमूल इन धारानि का विशेष प्रयोजन न जानि सामान्य कथन कीया, जो इनिका विशेप जान्या चाहै ते त्रिलोकसार विषै वृहद्धारा परिकर्मा नाम ग्रंथ विष जानहु । अब उपमा मान आठ प्रकार का वर्णन करिए है। अथ एक,दोय गणना करि कहने को असमर्थ रूप असा जो राशि, ताका कोई उपमा करि प्रतिपादन, सो उपमा मान है । तिसरूप प्रमाण (तिस उपमा मान के) आठ प्रकार है । १. पल्य, २ सागर,
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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