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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका j
[ २१५ प्रमाण आवै, तामै एक घटाए जितने होंइ, तितने प्रदेश जघन्य अवगाहना के ऊपरि जुडै कहा होइ, सो कहै है -
तवड्ढीए चरिमो, तस्सुरि रूवसंजुदे पढमा । संखेज्जभागउड्ढी, उवरिमदो रूवपरिवड्ढी ॥१०॥
तवृद्धेश्वरमः, तस्योपरि रूपसंयुते प्रथमा ।
संख्यातभागवृद्धिः उपर्यतो रूपपरिवृद्धिः ॥१०५॥ टीका - तीहि अवक्तव्य भाग वृद्धि का अंत अवगाहन स्थान हो है । बहुरि ए प्रवक्तव्य भाग वृद्धि स्थानकनि के भेद कितने है ? सो कहिए है - 'मादी अंते सुद्धे वट्टिहिदे रूवसंजुदे ठाणे' इस करण सूत्र करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का आदिस्थान का प्रदेश प्रमाण अतस्थान का प्रदेश प्रमाण विष घटाइ, अवशेष की वृद्धि प्रमाण एक-एक का भाग देइ जे पाए तिनि में एक जोडे जितने होइ, तितने अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान है।
बहुरि अब अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थानकनि की उत्पत्ति को अंक सदष्टि करि व्यक्त करै है। जैसे जघन्य अवगाहना का प्रमाण अडतालीस से (४८००), जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण सोलह, उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण १५, तहा भागहारभूत जघन्य परीतासंख्यात सोलह (१६) का भाग जघन्य अवगाहना अड़तालीस सै (४८००) को दीए तीन से पाए, सो इतने जघन्य अवगाहना ते वध असख्यात भाग वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान हो है । वहुरि तिस जघन्य अवगाहना अडतालीस सै को उत्कृष्ट संख्यात पंद्रह, ताका भाग दीए तीन से बीस (३२०) पाए, सो इतने बधै सख्यात भाग वृद्धि का प्रथम अवगाहना स्थान हो हे । बहुरि इनि दोऊनि के बीच अंतराल विर्ष तीन से एक को आदि देकरि तीन से उगणीस ३०१, ३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३०६, ३१०, ३११, ३१२, ३१३, ३१४, ३१५, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६ पर्यन्त वध जे ए उगरणीस स्थान भेद हो है, ते असंख्यात भाग वृद्धिरूप वा संख्यात भाग वृद्धिरूप न कहे जाड, जाते जघन्य असख्यात का भी वा उत्कृष्ट संख्यात का भी भाग दीए ते तीन से एक आदि न पाइए है । काहे त ? जाते जघन्य असंख्यात का भाग दीए तीन से पाग, उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीए तीन से वीस पाए, इनि ते तिनकी सख्या हीन अधिक है। ताते इनिकी प्रवक्तव्य भाग वृद्धिरूप स्थान कहिए तो इहां प्रवक्तव्य भाग वृद्धि विधे भागहार का प्रमाण कैसा सभव है ? सो कहिए है - जघन्य का प्रमाग अग्तानीस