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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
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अर यहु शास्त्राभ्यासरूप ज्ञानधन है सो अविनाशी है, भय रहित है, धर्मरूप है, स्वर्ग मोक्ष का कारण है । सो महंत पुरुष तौ धनकादिक को छोड़ि शास्त्राभ्यास विषे लगे है। तू पापी शास्त्राभ्यास को छडाय धन उपजावने की बड़ाई करै है, सो तू अनंत संसारी है।
बहुरि तै कह्या - प्रभावना आदिधर्म भी धन ही तै हो है । सो प्रभावना आदि धर्म हैं सो किंचित् सावद्य क्रिया संयुक्त है। तिसतै समस्त सावध रहित शास्त्राभ्यास रूप धर्म है, सो प्रधान है । ऐसे न होइ तौ गृहस्थ अवस्था विष प्रभावना आदि धर्म साधते थे, तिनि को छोड़ि संजमी होइ शास्त्राभ्यास विष काहे को लागै है ? बहुरि शास्त्राभ्यास ते प्रभावनादिक भी विशेष हो है ।
बहुरि से कह्या - धनवान के निकट पंडित भी आनि प्राप्त होइ । सो लोभी पंडित होइ, अर अविवेकी धनवान होइ तहां ऐसे हो है । अर शास्त्राभ्यासवालौ की तौ इंद्रादिक सेवा करै हैं । इहां भी बड़े बड़े महंत पुरुष दास होते देखिए है । तातै शास्त्राभ्यासवालौं तैं धनवान कौं महंत मति जाने ।
बहुरि तै कह्या - धन ते सर्व कार्यसिद्धि हो है । सो धन ते तो इस लोक संबंधी किछ विषयादिक कार्य ऐसा सिद्ध होइ, जातै बहुत काल पर्यत नरकादि दुःख सहने होइ । अर शास्त्राभ्यास ते ऐसा कार्य सिद्ध हो है जाते इहलोक विपै अर परलोक विषे अनेक सुखनि की परंपरा पाइए । तातै धन उपजावने का विकल्प छोड़ि शास्त्राभ्यास करना । पर जो सर्वथा ऐसे न बनै तौ संतोष लिए धन उपजावने का साधनकरि शास्त्राभ्यास विषै तत्पर रहना । ऐसै अर्थ उपजावने का पक्षपाती को सन्मुख किया।
बहुरि कामभोगादिक का पक्षपाती बोले है कि - शास्त्राभ्यास करने विप मुख नाहीं, बड़ाई नाही। तातै जिन करि इहां ही सुख उपजै ऐसे जे स्त्रीसेवना, खाना, पहिरना, इत्यादि विषय, तिनका सेवन करिए । अथवा जिन करि यहा ही बड़ाई होइ ऐसे विवाहादिक कार्य करिए ।
ताको कहिए है - विषयजनित जो सुख है सो दुख ही है । जाते विपय सुख है, सो परनिमित्त ते हो है । पहिले, पीछे, तत्काल प्राकुलता लिए है, जापं नाश होने के अनेक कारण पाइए है । आगामी नरकादि दुर्गति की प्राप्त करगहारा है। ऐसा है तो भी तेरा चाह्या मिले नाही, पूर्व पुण्य ते हो है, तातै विपम है । जैसे खाजि करि पीड़ित पुरुष अपना अंग को कठोर वस्तु तै ग्बुजावै, तैसे इंद्रियनि करि