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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ १८३ उदय अविरोधी है । बहुरि तैसे ही त्रस नाम कर्म सहित स्थावर-सूक्ष्म-साधारण नाम कर्म का उदय विरोधी है, अन्य कर्म का उदय अविरोधी है। बहुरि स्थावर नाम कर्म सहित त्रस नाम कर्म का उदय एक ही विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि बादर नाम कर्म सहित सूक्ष्म नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष प्रकृतिनि का उदय अविरोधी है । बहुरि सूक्ष्म नाम कर्म सहित त्रस बादर नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि पर्याप्त नाम कर्म सहित अपर्याप्त नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष सर्व कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि अपर्याप्त नाम कर्म का उदय सहित पर्याप्त नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष सर्व कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि प्रत्येक शरीर नाम कर्म का उदय सहित साधारण शरीर नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि साधारण शरीर नाम कर्म का उदय सहित प्रत्येक शरीर नाम कर्म का उदय पर त्रस नाम कर्म का उदय विरोधी है; अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है। जैसे अविरोधी प्रकृतिनि का उदय करि निपजे जे सदृश परिणामरूप धर्म, ते जीवसमास है; जैसा जानना । प्रागै संक्षेप करि जीवसमास के स्थानकनि को प्ररूप है - बादरसुहमइंदिय, बितिचउरिदिय असण्णिसण्णी य । पज्जत्तापज्जत्ता, एवं ते चोदसा होति ॥७२॥ बादरसूक्ष्मैकेद्रियद्वित्रिचतुरिद्रियासंज्ञिसंज्ञिनश्च ।। पर्याप्तापर्याप्ता, एवं ते चतुर्दश भवंति ॥७२॥ टीका - एकेद्रिय के बादर, सूक्ष्म ए दोय भेद । बहुरि विकलत्रय के द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिद्रिय ए तीन भेद । बहुरि पंचेद्रिय के सज्ञी, असज्ञी ए दोय भेद, असे सात जीवभेद भए । ये एक-एक भेद पर्याप्त, अपर्याप्त रूप है । जैसे सक्षेप करि चौदह जीवसमास हो है । आगै विस्तार ते जीवसमास को प्ररूप है - भूआउतैउवाऊ, णिच्चचदुग्गदिणिगोदथूलिदरा । पत्तेयपदिदिरा, तसपण पुण्णा अपुण्णदुगा ॥७३॥ भ्वप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदस्थूलेतराः। प्रत्येकप्रतिष्ठेतराः, सपंच पूर्णा अपूर्णद्विकाः ॥७३॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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