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________________ १६६ 1 [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५६ __ इहा च्यारि, तीन आदि स्थानकनि विपं पाठ, नव आदि अविभागप्रतिच्छेद स्थापे है । तिनकी सहनानी करि अपनी-अपनी वर्गणा विष जेते-जेते वर्ग है; तितनेतितने स्थानकनि विर्षे तिन अविभागप्रतिच्छेदनि का स्थापन जानना। ऐसे अंकसंदृष्टि करि जैसे दृष्टांत कह्या, तैसे ही पूर्वोक्त यथार्थ कथन का अवधारण करना । या प्रकार कहे जे अनुभागरूप स्पर्धक, ते पूर्व संसार अवस्था विप जीवनि के संभव है; तातै इनिको पूर्वस्पर्धक कहिये । इनि विपै जघन्य स्पर्धक ते लगाइ लताभागादिकरूप स्पर्धक प्रवर्ते है । तिनि विर्ष लताभागादिरूप केई स्पर्धक देशघाती है। ऊपरि के केई स्पर्धक सर्वघाती है, तिनिका विभाग आगे लिखेंगे । बहुरि अनिवृत्तिकरण परिणामनि करि कबहू पूर्वं न भए ऐसे अपूर्वस्पर्धक हो है । तिनि विर्ष जघन्य पर्वस्पर्धक ते भी अनंतवे भाग उत्कृष्ट अपूर्व स्पर्धक विष भी अनुभाग शक्ति पाइए है । विशुद्धता का माहात्म्य ते अनुभाग शक्ति घटाए कर्म परमाणुनि को ऐसे परिणमावै है । इहां विशेष इतना ही भया - जो पूर्वस्पर्धक की जघन्य वर्गणा के वर्ग तै इस अपूर्वस्पर्धक की अंत वर्गणा के वर्ग विषे अनंतवे भाग अनुभाग है । वहुरि तातै अन्य वर्गणानि विर्ष अनुभाग घटता है, ताका विधान पूर्वस्पर्धकवत् ही जानना । वहुरि वर्गणानि विष परमाणुनि का प्रमाण पूर्वस्पर्धक की जघन्य वर्गणा ते एक-एक चय वधता पूर्व स्पर्धकवत् क्रम ते जानना । इहां चय का प्रमाण पूर्वस्पर्धक की आदि गुणहानि का चय ते दूरणा है । वहुरि पीछ अनिवृत्तिकरण के परिणामनि ही करि कृष्टि करिये है । अनुभाग का कृष करना, घटावना, सो कृष्टि कहिये । तहां संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का अनुभाग घटाइ स्थूल खण्ड करना, सो वादरकृष्टि है। तहां उत्कृष्ट बादरकृष्टि विष भी जघन्य अपूर्वस्पर्धक ते भी अनंतगुणा अनुभाग घटता हो है। तहां च्यारों कषायनि की वारह संग्रहकृष्टि हो है । अर एक-एक संग्रहकृष्टि के विष अनन्त-अनन्त अतर कृष्टि हो है । तिनि विषै लोभ की प्रथम सग्रह की प्रथमकृप्टि तै लगाइ क्रोध की तृतीय सग्रह की अतकृष्टि पर्यन्त क्रम ते अनन्तगुणा-अनन्तगुणा अनुभाग है । तिस क्रोध की तृतीय कृप्टि की अतकृप्टि ते अपूर्वस्पर्धकनि की प्रथम वर्गणा विष अनन्तगुणा अनुभाग है । सो स्पर्धकनि विष तौ पूर्वोक्त प्रकार अनुभाग का अनुक्रम था । इहां अनन्तगुणा घटता अनुभाग का क्रम भया, सोई स्पर्धक अर कृष्टि विर्षे विशेप जानना । वहुरि तहां परमाणुनि का प्रमाण लोभ की प्रथम संग्रह की जघन्य कृप्टि विष यथासभव बहुत है, तातै क्रोध की तृतीय सग्रह की अंतकृष्टि पर्यन्त चय घटता क्रम लीए है । सो याका विशेष आगै लिहंगे, सो जानना । सो यहु अपूर्व -
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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