________________
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ३ बहुरि कोऊ कहै कि इस कार्य विर्षे विशेष हित हो है सो सत्य, परंतु मंदबुद्धि तै कही भूलि करि अन्यथा अर्थ लिखिए, तहां महत् पाप उपजने तै अहित भी तो होइ ?
ताको कहिए है - यथार्थ सर्व पदार्थनि का ज्ञाता तो केवली भगवान है। औरनि के ज्ञानावरण का क्षयोपशम के अनुसारी ज्ञान है, तिनिको कोई अर्थ अन्यथा भी प्रतिभास, परंतु जिनदेव का ऐसा उपदेश है – कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रनि के वचन की प्रतीति करि वा हठ करि वा क्रोध, मान, माया, लोभ करि वा हास्य, भयादिक करि जो अन्यथा श्रद्धान करै वा उपदेश देइ, सो महापापी है । पर विशेष ज्ञानवान गुरु के निमित्त बिना, वा अपने विशेष क्षयोपशम बिना कोई सूक्ष्म अर्थ अन्यथा प्रतिभासै अर यहु ऐसा जाने कि जिनदेव का उपदेश ऐसे ही है, ऐसा जानि कोई सूक्ष्म अर्थ को अन्यथा श्रद्ध है वा उपदेश दे तौ याको महत् पाप न होइ । सोइ इस ग्रथ विष भी प्राचार्य करि कहा है -
सम्माइट्ठी जीवो, उवइनें पवयणं तु सद्दहदि । सदहदि असब्भावं, अजाणमाणो गुरुरिणयोगा ॥२७॥ जीवकांड ॥
बहरि कोऊ कहै कि - तुम विशेष ज्ञानी ते ग्रंथ का यथार्थ सर्व अर्थ का निर्णय करि टीका करने का प्रारंभ क्यों न कीया ?
ताकौ कहिये है - काल दोष ते केवली, श्रुतकेवली का तौ इहां अभाव ही भया । बहुरि विशेष ज्ञानी भी विरले पाइए। जो कोई है तो दूरि क्षेत्र विष है, तिनिका संयोग दुर्लभ । अर आयु, बुद्धि, बल, पराक्रम आदि तुच्छ रहि गए । तातें जो बन्या सो अर्थ का निर्णय कीया, अवशेष जैसे है तैसे प्रमाण है।
बहुरि कोऊ कहै कि - तुम कही सो सत्य, परंतु इस ग्रथ विष जो चूक होइगी, ताके शुद्ध होने का किछ उपाय भी है ?
ताको कहिये है - एक उपाय यह कीजिए है - जो विशेष ज्ञानवान पुरुपनि का प्रत्यक्ष तौ संयोग नाही, तातै परोक्ष ही तिनिस्यों ऐसी बीनती करौ हौ कि मैं मंद बुद्धि हो, विशेपज्ञान रहित हो, अविवेकी हौ, शब्द, न्याय, गणित, धार्मिक आदि ग्रथनि का विशेष अभ्यास मेरे नाही है, तातै शक्तिहीन हो, तथापि धर्मानुराग के वश तै टीका करने का विचार कीया, सो या विपै जहा-जहां चूक होइ, अन्यथा अर्थ होइ, तहां-तहां मेरे ऊपरि क्षमा करि तिस अन्यथा अर्थ को दूरि करि यथार्थ अर्थ लिखना। ऐसे विनती करि जो चूक होइगी, ताके शुद्ध होने का उपाय कीया है ।
बहुरि कोऊ कहै कि तुम टीका करनी विचारी सो तो भला कीया, परतु ऐसे महान ग्रंथनि की टीका सस्कृत ही चाहिये । भाषा विपै याकी गंभीरता भास नाही।