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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७
मान जे सर्व जीव, ते हीन - अधिकपना ते रहित समान विशुद्ध परिणाम धरै हैं । तहां समय-समय प्रति ते विशुद्ध परिणाम अनंतगुणे - अनंतगुणे उपजै है । तहां प्रथम समय विषै विशुद्ध परिणाम है; तिनते द्वितीय समय विषै विशुद्ध परिणाम अनंतगुणे हो है । मैं पूर्व - पूर्व समयवर्ती विशुद्ध परिणामनि ते जीवनि के उत्तरोत्तर समयवर्ती विशुद्ध परिणाम अविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अनंतगुणा - अनंतगुरणा अनुक्रम करि वधता हुआ प्रवर्तें हैं । ऐसा यहु विशेष जैन सिद्धांत विषै प्रतिपादन किया है, सो प्रतीति में ल्यावना ।
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भावार्थ - अनिवृत्तिकरण विषै एक समयवर्ती जीवनि के परिणामनि विषे समानता है । बहुरि ऊपर-ऊपरि समयवर्तीनि के अनंतगुणी अनंतगुणी विशुद्धता aaती है ।
ताका उदाहरण - जैसे जिनकी अनिवृतिकरण मांडे पांचवां समय भया, ऐसे त्रिकालवर्ती अनेक जीव, तिनकै विशुद्ध परिणाम परस्पर समान ही होंइ, कदाचित् हीन - अधिक न हों । वहुरि ते विशुद्ध परिणाम जिनको अनिवृत्तिकरण मांडे चौथा समय भया, तिनकै विशुद्ध परिणामनि ते अनंतगुणे हैं । वहुरि इनते जिनको अनिवृत्तिकरण मांडे छठा समय भया, तिनके अनंतगुणे विशुद्ध परिणाम हो है; ऐसें सर्वत्र जानना । वहुरि तिस अनिवृत्तिकरण परिणाम संयुक्त जीव, ते अति निर्मल व्यानरूपी हुतभुक् कहिए अग्नि, ताकी शिखानि करि दग्ध कीए हैं कर्मरूपी वन जिनने ऐसे हैं । इस विशेषण करि चारित्र मोह का उपशमावना वा क्षय करना प्रनिवृत्तिकरण परिणामनि का कार्य है; ऐसा सूच्या है । ग्रागै मूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के स्वरूप को कहै है '
धुदको भयवत्थं, होदि जहा सुहमरायसंजुत्तं । एवं सुहमकसाम्रो, सुहमसरागो त्ति गादव्वो ॥५८॥
धौतकौसु भवस्त्रं भवति यथा सूक्ष्मरागसंयुक्तं । एवं सूक्ष्मकषायः, सूक्ष्मसांपराय इति ज्ञातव्यः ॥ ५८ ॥
टीका - जैसे वोया हुआ कसूंमल वस्त्र, है । तैसे अगिला सूत्र विषै कह्या विधान करि कपाय, नाहिकरि जो संयुक्त, सो सूक्ष्मसांपराय है;
सो मूक्ष्म लाल रंग करि संयुक्त हो मूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त जो लोभ ऐसा जानना ।