________________
१५८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४-२५
जैसे गल्या है ज्ञानावरणादि कर्मरूप अंधकार जिनिका जैसे जिनदेवनि करि कला है ।
बहुरि ते अपूर्वकरण जीव सर्व ही प्रथम समय तै लगाइ चारित्र मोहनीय नामा कर्म के अपावने कौं वा उपशम करने कौं उद्यमवंत हो हैं । याका अर्थ यहु - जो गुणश्रेणिनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखंडन, अनुभगखंडन जैसे लक्षण धरें जे च्यारि आवश्यक, तिनकों करें हैं ।
तहां पूर्व गंध्या था जैसा सत्तारूप जो कर्म परमाणुरूप द्रव्य, तामें सौं काढि जो द्रव्य गुणश्रेणी विषै दीया, ताका गुग्गश्रेणी का काल विपैं समय सयय प्रति असंख्यात-असंन्त्र्यातगुणा अनुक्रम लीए पंक्तिवंत्र जो निर्जरा का होना, सो गुग्गश्रेरिंगनिर्जरा है |
बहुरि समय-समय प्रति गुणकार का अनुक्रम ते विवक्षित प्रकृति के परमाणु पलटि करि अन्य प्रकृतिरूप होइ परिणमें, सो गुरण संक्रमण है ।
बहुरि पूर्वे वांबी श्री अंसी सत्तारूप कर्म प्रकृतिनि की स्थिति, ताका घटावना; सो स्थिति खंडन कहिए ।
बहुरि पूर्वे वांच्या या वैसा सत्तारूप ग्रप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का अनुभाग, ताका घटावना सो अनुभाग खंडन कहिए । असें च्यारि कार्य अपूर्वकरण दिपैं श्रवश्य हो हैं । इनिका विशेष वर्णन यागे लव्विसार, नपगामार अनुसार ग्रंथ लिखेंगे, तहां जानना |
णिद्दापयले पट्टे, सदि आऊ उवसमंति उवसमया । खवयं ढुक्के खबया, रिणयमेरेण खवंति मोहं तु ॥५५॥
निद्राप्रचले नष्टे सति श्रायुषि उपशमयंति उपशमकाः । अपर्क ढोकमानाः, क्षपका नियमेन अपयंति मोहं तु ॥५५॥
टीका इस अपूर्वकरण गुणस्थान विपैं विद्यमान मनुष्य ग्रायु जार्के पाटए, ऐसा पूर्वकरण जीत्र के प्रथम भाग विषै निद्रा घर प्रचला - ए दो प्रकृति बंध होनेनं व्युच्छित्ति हो है ।
--