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सम्यग्जानधन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १५७ अपूर्वकरण काल का प्रथमादि समयनि विर्ष जेते-जेते परिणाम संभवै, तिनका प्रमाण कह्या है । बहुरि इहां पूर्वापर विर्ष समानता का अभाव है; तातै खंड करि अनुकृष्टि विधान न कह्या है । बहुरि इस अपूर्वकरण काल विष प्रथमादिक अंत समय पर्यत स्थित जे परिणाम स्थान, ते पूर्वोक्त विधान करि असंख्यात लोक बार षट्स्थान पतित वृद्धि को लीएं जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद संयुक्त है । तिनका समय-समय प्रति अर परिणाम-परिणाम प्रति विशुद्धता का अविभागप्रतिच्छेदनि का प्रमाण अवधारणे के अर्थि अल्प बहुत्व कहिए है।।
तहां प्रथम समयवर्ती सर्वजघन्य परिणाम विशुद्धता, सो अधःप्रवृत्तकरण का अंत समय संबंधी अंत खंड की उत्कृष्ट विशुद्धता ते भी अनंतगुणा अविभागप्रतिच्छेदमयी है, तथापि अन्य अपूर्वकरण के परिणामनि की विशुद्धता तै स्तोक है । बहुरि तातै प्रथम समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । बहुरि ताते द्वितीय समयवर्ती जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है। जातै प्रथम समय उत्कृष्ट विशुद्धता ते असंख्यात लोक मात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धिरूप अंतराल करि सो द्वितीय समयवर्ती जघन्य विशुद्धता उपज है। बहुरि तात तिस द्वितीय समयवर्ती उत्कृष्ट विशुद्धता अनंतगुणी है। जैसे उत्कृष्ट तै जघन्य अर जघन्य ते उत्कृष्ट विशुद्ध स्थान अनंतगुणा-अनंतगुणा है । या प्रकार सर्प की चालवत् जघन्य ते उत्कृष्ट, उत्कृष्ट तै जघन्यरूप अनुक्रम लीए अपूर्वकरण का अत समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यत जघन्य, उत्कृष्ट विशुद्धता का अल्पबहुत्व जानना ।
या प्रकार इस अपूर्वकरण परिणाम का जो कार्य है, ताके विशेष को गाथा दोय करि कहै है -
तारिसपरिणामटियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरहिं । मोहस्सपुवकररणा, खवणुवसमणुज्जया भरिणया ॥५४॥ ताशपरिणामस्थितजीवा हि जिनैर्गलिततिमिरैः ।
मोहस्यापूर्वकरणा, क्षपरणोपशमनोद्यता भणिताः ॥८४॥ टीका - तादृश कहिए तैसा पूर्व-उत्तर समयनि विष असमान जे अपूर्वकरण के परिणाम, तिनिविषै स्थिताः कहिए परिणए असे जीव, ते अपूर्वकरण है। १. षट्खडगम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १८४, गाथा ११८