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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
। १४६ विशुद्धता अनंतगुणी है । तातै प्रथम निवर्गणाकांडक का तृतीय समय सबधी उत्कृष्ट खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता अनतगुणी है। या प्रकार जैसै सर्प की चाल इधर ते ऊधर, ऊधर तै इधर पलटनिरूप हो है; तैसे जघन्य तै उत्कृष्ट, उत्कृष्ट तै जघन्य असे पलटनि विर्ष अनतगुणी अनुक्रम करि विशुद्धता प्राप्त करिए, पीछे अत का निर्वर्गणाकांडक का अंत समय संबधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशद्धता अनंतानंतगुणी है । काहै तै ? जातै पूर्व-पूर्व विशुद्धता तें अनंतानंतगुणापनौ सिद्ध है। बहुरि तातै अंत का निर्वर्गणाकांडक का प्रथम समय संबंधी उत्कृष्ट खण्ड की परिणाम विशुद्धता अनतगुणी है । तातै ताके ऊपरि अंत का निर्वर्गणाकांडक का अंत समय सबंधी अत खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त उत्कृष्ट खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतानतगुणा अनुक्रम करि प्राप्त हो है । तिनि विर्ष जे जघन्य तै उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनतानतगुणी है, ते इहा विवक्षारूप नाही है; जैसा जानना ।
या प्रकार विशुद्धता विशेष धरै जे अधःप्रवृत्तकरण के परिणाम, तिनि विषै गुणश्रेणि निर्जरा, गुणसक्रमण', स्थितिकांडकोत्करण, अनुभागकांडकोत्करण भए च्यारि आवश्यक न सभव है । जाते तिस अधःकरण के परिणामनि के तैसा गुणश्रेरिण निर्जरा आदि कार्य करने की समर्थता का अभाव है। इनका स्वरूप आगे अपूर्वकरण के कथन विष लिखेंगे ।
तो इस करण विर्षे कहा हो है ? .
केवल प्रथम समय तै लुगाइ समय-समय प्रति अनतगुणी-अनतगुणी विशुद्धता की वृद्धि हो है । बहुरि स्थितिबधापसरण हो है । पूर्व जेता प्रमाण लीए. कर्मनि का स्थितिबध होता था, तातै घटाइ-घटाइ स्थितिबध कर है । बहुरि साता3)
वेदनीय को आदि देकरि प्रशस्त कर्मप्रकृतिनि का समय-समय प्रति अनतगुणा-अनंत. गुणा बधता गुड, खड, शर्करा, अमृत समान चतुस्थान लीए अनुभाग बंध हो है।
बहुरि असाता वेदनीय आदि अप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का समय-समय प्रति अनंतगुणाअनतगुणा घटता निब, काजीर समान द्विस्थान लीए अनुभाग बध हो है, विषहलाहल रूप न हो है । जैसे च्यारि आवश्यक इहां संभव है । अवश्य हो हैं, ताते इनिको आवश्यक कहिए है।
बहुरि से यह कह्या जो अर्थ, ताकी रचना अंकसंदृष्टि अपेक्षा लिखिए है ।