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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८ वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव, सो प्रथम ही अनंतानुबंधी के चतुष्क कौं अधकरणादि तीन करणरूप पहिले करि विसंयोजन करै है ।
विसयोजन कहा कर है ?
अन्य प्रकृतिरूप परिणमावनेरूप जो सक्रमण, ताका विधान करि इस अनतानुवन्धी के चतुष्क के जे कर्म परमाणु , तिनको बारह कषाय अर नव नोकषायरूप परिणमावै है।
वहुरि ताके अनंतरि अंतर्मुहूर्त्तकाल ताई विश्राम करि जैसा का तैसा रहि, बहुरि तीन करण पहिले करि, दर्शन मोह की तीन प्रकृति, तिन को उपशमाय, द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि हो है।
अथवा तीनकरण पहिले करि, तीन दर्शनमोह की प्रकृतिनि को खिपाइ, मायिक सम्यग्दृष्टि हो है।
बहुरि ताके अनंतर अतर्मुहूर्त काल ताई अप्रमत्त ते प्रमत्त विष प्रमत्त ते अप्रमत्त विप हजारांबार गमनागमन करि पलटनि करै है। बहुरि ताके अनंतर समय-समय प्रति अनतगुणो विशुद्धता की वृद्धि करि वर्धमान होत सता इकईस चारित्र मोह को प्रकृतिनि के उपशमावने को उद्यमवत हो है । अथवा इकईस चारित्र मोह की प्रकृति क्षपावने की क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही उद्यमवत हो है ।
भावार्थ - उपशम श्रेणी की क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि दोऊ चढे अर क्षपक श्रेणी कौ क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढने को समर्थ है। उपशम गम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी की नाही चढे है । सो यहु असा सातिशय अप्रमत्तसयत, सो अनतानुबंधी चतुष्क विना इकईस प्रकृतिरूप, तिस चारित्रमोह को उपशमावने, वा क्षय करने को कारणभूत असे जे तीन करण के परिणाम, तिन विषै प्रथम अध..) प्रवृत्तकरण की करै है; असा अर्थ जानना।
प्राग अथ प्रवृत्तकरण का निरुक्ति करि सिद्ध भया जैसा लक्षण को कहै है -
जह्मा उवरिमभावा, हेट्ठिमभावेहिं सरिसगा होति । तह्मा पढमं करणं, अधापवत्तो त्ति णिद्दिढें ॥४८॥