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सम्पज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[१२७ इनि कोठानि के अंक जोडे पैतीस हजार होइ । तातै इनि कोठानि विष तिष्ठते उत्तर भेदरूप मोही-प्रचलायुक्त-रसना इद्रिय के वशीभूत-प्रत्याख्यान क्रोधीकृष्याद्यारंभकथालापी असा आलाप पैतीस हजारवा जानना । याको दृढ करणे को 'सगमाणेहिं विभत्ते' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र करि भी याको साधिए है । पूछनहारेने पैतीस हजारवां आलाप पूछया, तहा प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पहलै प्रणय का प्रमाण दोय, ताको भाग दीए, साढे सतरा हजार पाए, अवशेष किछ रह्या नाही । ताते इहां अंत भेद स्नेह ग्रहण करना । बहुरि लब्धराशि विषै किछु अवशेष न रह्या, तातै एक न जोडना । बहुरि तिस लब्धराशि को याके नीचे निद्राभेद पांच, ताका भाग दीए, पैतीस सै पाए, इहा भी किछु अवशेष न रह्या, तातै अंत भेद प्रचला का ग्रहण करना । इहां भी लब्धराशि विष एक न जोडि, तिस लब्धराशि को छह इंद्रिय का भाग दीएं पाच सै तियासी पाए, अवशेष दोय रहै, सो इहा दूसरा अक्ष रसना इंद्रिय का ग्रहण करना । बहुरि लब्धराशि विष इहा एक जोडिए, तब पांच सै चौरासी होइ, तिनको कषाय पचीस का भाग दीए, तेवीस पाए, अवशेष नव रहै सो इहा नवमां कषाय प्रत्याख्यान क्रोध का ग्रहण करना । बहुरि लब्धराशि तेवीस विष एक जोडिए, तब चौवीस होइ, ताकी कषाय भेद पचीस का भाग दीए, शून्य पावै, अवशेष चौवीस रहै, सो इहा चौवीसवा विकथा भेद कृष्याद्यारंभ का ग्रहण करना । असे पूछया हुवा पतीस हजारवा पालाप मोही-प्रचलायुक्त-रसना इद्रिय के वशीभूत-प्रत्याख्यान क्रोधी-कृष्याद्यारंभकथालापी असा भगरूप हो है। जैसे ही अन्य नष्ट का साधन करना । जैसै नष्ट का उदाहरण कह्या ।
अब उद्दिष्ट का कहिए है - कोऊ पूछ कि स्नेही-निद्रायुक्त-मन के वशीभूत अनंतानुबन्धी क्रोधयुक्त-मर्खकथालापी असा आलाप केथवा है ?
नहा उत्तर भेद जिस-जिस कोठानि विर्षे लिखे है, तिस-तिस कोठानि के अक एक, छह, पचास, बिदी, चौवीस हजार मिलाए, चौवीस हजार सत्तावनवा भेद है, जैसा कहिए । बहुरि याही कू 'संठाविदूरणरूवं' इत्यादि सूत्रोक्त उद्दिष्ट ल्यावने का विधान साधिए है। प्रथम एकरूप स्थापि, ताको प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पहिलै पचीस विकथानि करि गुणिए । अर इहा आलाप विष मूर्खकथा का ग्रहण है, ताते याके परै पाठ अनकित स्थान है। तिनको घटाएं, तब सतरह होइ । बहुरि इनिको पचीस कषायनि करि गुरिणए अर यहा प्रथम कषाय का ग्रहण है, तात याके परै