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स्वयंभू स्तोत्र टीका प्रापने मत से एकांत मत का खण्डन किया तथा आपने जिनागम का प्रचार किया व आपके विहार से किसी को कष्ट नहीं पहुंचा।
छन्द त्रोटक
है प्रभु तव गमन महान हुग्रा, शममत रक्षक भय हान हुआ। जिन वरहस्तो मद-स्रवन करै, गिरि तट को खंडत गमन करं ।। १४२ ।।
उत्थानिका-प्रब बताते हैं कि आपके मत में व पर के मत में क्या अन्तर है - बहुगुणसंपदसकलं परमतर्माप मधुरवचनविन्यासकलम् । नय भक्त्यवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ १४३ ॥
अन्वयार्थ-(मधुरवच वन्यासकलं अपि) मीठे २ वचनों की रचना से भरपूर होने पर भी ( परमतं ) आपसे भिन्न अन्य एकांतमत (बहुगुणसंपत् असकलं ) बहुत जो सर्वज्ञ वीतरागादि गुणों की प्राप्ति से पूर्ण नहीं हैं अर्थात् उनके सेवन से प्रात्मा का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। आत्मा सर्वज्ञ वीतराग नहीं हो सकता। ( देव ) हे श्री वीर भगवान् ! ( तव मतं ) आपका शासन ( सकलं ) समस्तपने ( समन्तभद्र) सब तरह कल्याणकारी है तथा ( नयभक्त्यवतंसकलं ) प्रापका मत नैगमादिनय तथा उनके भंग स्यात् अस्ति आदि इन कर्ण भूषणों से परिपूर्ण है अर्थात् शोभायमान है ।
भावार्थ-हे वीर भगवान ! प्रापका मत व शासन अनेक नयों से व भंगों से भले प्रकार सिद्ध हो सकता है व वह पूर्णपने जीव का हितकारी है । इस आत्मा को सर्वज्ञ वीत. राग परमात्मा कर देने वाला है इसलिए ग्रहण योग्य यथार्थ है । इसीसे समन्तभद्र प्राचार्य कहते हैं कि मैंने उसे परम कल्याणकारी जानकर स्वीकार किया है । श्लोक में समन्तभद्र शब्द रखने से कवि ने अपना नाम भी सूचित किया है तथा श्रापके अनेकांत मत से विरुद्ध एकांत मत शब्द रचना में कैसे भी सुन्दर हों परन्तु वे प्रात्मा को पूर्ण मोक्षमार्ग बताने के लिये असमर्थ हैं, उनके सेवन से यह जीव सर्वज्ञ वीतराग व परमात्मा नहीं हो सकता है । धन्य हैं श्री महावीर स्वामी ! प्रापका शासन इस समय भी हम जीवों को यथार्थ हितकारी मार्ग बता रहा है ।