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श्री स्वयंभू स्तोत्र टीका
श्रोटक छन्द
परमत मृदुवचन रचित भी है, निज गुण संप्राप्ति रहित वह है। तव मत नय भग विभूषित है, सुसमन्तभद्र निषित है ॥ १४३ ।। पूर्ण किया-प्राश्विन वदी ८ वीर सं• २४५६ ता० १६-९-१९३.
स्वयंभू स्तोत्र का सार श्री समन्तभद्राचार्य ने यह २४ तीर्थंकरों की स्तुति रची है इसमें मुख्यता से दो ही बात बताई हैं जो मुमुक्षु जीव के लिये परम उपयोगी हैं । एक तो यह बताया है कि वस्तु अनेकान्त स्वरूप है। अनेक स्वभावमई वस्तु को माने बिना वस्तु का ठीक ज्ञान नहीं हो सकता है । जो एक धर्मरूप मानते हैं उनके मत में वस्तु का पूरा स्वभाव नहीं कहा जाता है । वस्तु अपनी अपेक्षा सत् है पर की अपेक्षा असत् है । द्रव्य व गुणों के बने रहने की अपेक्षा नित्य है, पर्याय पलटने की अपेक्षा अनित्य है । गुण पर्यायों का.समुदाय होने से वस्तु एकरूप है । हरएक गुण व पर्याय रूप वस्तु भिन्न भिन्न स्वरूप है इससे अनेक रूप है । इस तरह प्रात्मा व पुद्गल द्रव्यों को माना जायगा तब भिन्न भिन्न द्रव्य सतरूप प्रादि सिद्ध होंगे व तब ही बंध व मोक्ष होना बन सकेगा । एकरूप ही मानने से कुछ भी न बनेगा । दूसरी बात यह बताई है कि तृष्णा व विषय की चाह कभी इन्द्रियों के भोगों से शमन नहीं हो सकती है। तृण्णा ही क्लेश है। यह क्लेश संसार की मग्नता से बढ़ता जाता है। इसलिए तृष्णा का नाश करना चाहिये। उसका उपाय अपने प्रात्मा का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र है। अपने प्रात्मा को निश्चय से शुद्धज्ञानानन्दमई अनुभव करना चाहिये । इस स्वात्मानुभव के अभ्यास से प्रात्मिक सुख की प्राप्ति होगी तव तृष्णा मिटती चली जायगी, वीतरागता बढ़ती चली जायगी। इसी आत्मानुभव के अभ्यास से चार घातिया कर्मों का नाश होकर अरहन्त पद होता है। फिर शुक्लध्यान से प्रघातीय कर्म भी हटते हैं और यह जीव सिद्ध हो जाता है जहां अनन्तज्ञानादि सुख में मग्न हो जाता है । स्वामी ने जहां तहां ससार के नाश की व मोक्ष प्राप्ति की महिमा दिखाकर तीर्थंकरों के जीवन को दर्शाकर यह उपदेश दिया है कि इस तृष्णामई सांसारिक क्लेश का नाश हरएक भव्य जीव को करना चाहिये। उसके लिये रत्नत्रयमई जिन धर्म का सेवन करना चाहिये । संसार से वैराग्य भजना चाहिये । हर जगह स्तुति का