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श्री महावीर जिन स्तुति
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का अथवा जिससे हेयोपादेय तत्त्व का ज्ञान हो व स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति हो ऐसे कपट रहित तत्त्व का ( सप्रयामदमायः । व व्रत सहित इन्द्रिय जय की प्राप्ति का ( समादेसि | उपदेश किया ।
भावार्थ -- यहां बताया है कि प्रभु में पूर्ण मार्दव व आर्जव धर्म है । जो प्रभु को पहचानते हैं वे भी मान माया को त्याग देते हैं । प्रभु का केवलज्ञान जीवादि पदार्थों को यथार्थ जानने वाला है व उस ज्ञान का प्रकाश जो दिव्यध्वनि के द्वारा होता है उससे मुमुक्षु जीवों को सच्चा मोक्षमार्ग मिल जाता है व वह बहुत परम कल्याणकारी है । आपने उपदेश ही ऐसा दिया है जिससे मायाशल्यरहित भव्य जीव ऐसा चारित्र पालें जिससे लक्ष्मी का मद न रहे व वे स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति कर सकें व वे मुनि व श्रावक के व्रतों फो पालते हुए साक्षात् जिन व जितेन्द्रिय हो सकें ।
त्रोटक छन्द
हे जिन मायामद नाहिं घरो, तुम तत्त्व ज्ञान से श्रेय करो । मोक्षेच्छु का मकर वच तेरा, व्रत दमकर सुखकर मत तेरा ।। १४१ ।। उत्थानिका -- और भी भगवान को स्तुति करते हैं-
गिरिभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः स्त्रवद्दानवतः ।
तव शमवादानवतो गतमूर्जितमपगत प्रमादानतः ।। १४२ ।।
प्रन्वयार्थ - 1 तव गतम् ) प्रापका पृथ्वी में विहार ( ऊर्जितम् ) परम उदार व हितकारी हुआ ( समवादान् ग्रवतः । श्रापने शांतिप्रद श्रागम की रक्षा की व ( अपगतप्रमादानवतः ) व सर्व प्राणियों को अभयदान श्रापने दिया । प्रापके विहार से किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचा । श्रापका बिहार ( श्रीमतः दन्तिनः इव । उत्तम भद्र जाति के हाथों के गमन के समान हुप्रा जो ( स्रवद्दानवतः) अपने मदको बहाने वाला है व ( गिरिभित्त्यवदानवतः । जो पर्वत के किनारों को खण्डन करता हुम्रा जा रहा है ।
भावार्थ--जैसे उत्तम हाथी विहार करता हुआ मन्द मन्द चाल से चलता हुआ मदको बहाता है व पर्वत के किनारों को प्रपने दांतों से खण्डन करता है इस तरह है प्रभु ! श्रापका बिहार पृथ्वी में हुआ । श्रापने धर्मोपदेश रूपी अमृत का प्रवाह बहाया व