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________________ २०८ स्वयंभू स्तोत्र टीका से लोक प्रसिद्ध हरिहरादिक के महात्म्य को क्षीण कर डाला है ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी के निकटवर्ती गणधरादि देव ( स्तुवन्ति ) स्तुति करते रहते हैं । भावार्थ-प्रापकी कीति इसीलिये जगत में उज्वलरूप फली है कि श्रापका बताया हुआ मोक्ष का मार्ग परम उत्कृष्ट है । इस पंचमकाल में भी अपनी महिमा से मिथ्यामार्ग को हटाने वाला है । जो भव्यजीव गुरणप्रेमी श्रापके शासन का श्राश्रय लेते हैं उनके राग द्वेष मोहरूपी संसार का नाश हो जाता है तथा आपके धर्म की महिमा निरन्तर गणधरावि देव गाते हैं । जो रागादि दोषों को दूर करने में समर्थ हैं व जो चार ज्ञान के धारी हैं व जिनके ज्ञान के सामने लोकों से माने हुए हरिहरादि की महिमा क्षीण हो गई है । त्रोटक छन्द हे जिन तुम शासन की महिमा, भविभवनाशक कलिमांहि रमा निज ज्ञान प्रभा श्रनक्षीण विभव, मलहर गणधर प्रणमै मत सब ॥ १३७ ॥ उत्थानका - वे गणधर देव किस तरह आपके शासन की महिमा गाते हैंअनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः । इतरो न स्याद्वादशे सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वावः ॥ १३८ ॥ वयार्थ - ( तव ) प्रापका ( स्याद्वाद: ) अनेकान्त शासन ( अनवद्यः । दोषरहित है, कारण यह है कि वह । दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वाद : ) प्रत्यक्षादि प्रमाण व श्रागम से विरोध न श्रावे इस तरह स्यात् या कथंचित् या किसी प्रपेक्षा से वस्तु के स्वभावों को यथार्थ कहने वाला है | ( इतर: ) इसके सिवाय जो एकान्त मत है " स्याद्वादः न ) वह प्रमाणभूत ग्रागम नहीं है, क्योंकि ( मुनीश्वर ) हे मुनीश्वर ! ( सः द्वितयविरोधात् । वह एकान्त प्रत्यक्षादि प्रमाण व आपके सत्य प्रागम से विरोधरूप है । इसलिये यह (स्याद्वादः ) स्याद्वाद रूप नहीं है अर्थात् भिन्न २ अपेक्षा से भिन्न २ स्वभावों को सिद्ध करने वाला नहीं है । r भावार्थ - हे मुनीश्वर ! श्रापका मतं श्रनैकान्त हैं। वस्तु में नित्य प्रनित्य एक अनेक सत् असत् जो अनेक स्वभाव हैं उनको भिन्न २ पेक्षा से बताने वाला है तथा स्याद
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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