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________________ श्री महावीर जिन स्तुति २०७ ( २४ ) श्री महावीरजिन स्तुतिः ... कोा भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया । भासोडुसभासितया सोम इव व्योम्नि कुंदशोभासितया ॥ १३६ ।। अन्वयार्थ-[वीर] हे वीर ! [त्वं] श्राप [भासितया] उज्ज्वल [गुणसमुत्थया ] अपने प्रात्मीक गुणों से उत्पन्न [ तया कीर्त्या ] उस धवल यश से [ भुवि ] पृथ्वी में [भासि] शोभ रहे हो ( व्योम्नि कुन्दशोभासितया उडुभासितया भासा सोम इव ) जिस तरह आकाश में चन्द्रमा कुन्द पुष्प की सी सफेद शोभा रखने वाले नक्षत्रों की सभा से विराजित शोभता है । भावार्थ-जिस तरह आकाश में चन्द्रमा सफेद नक्षत्रों से वेष्ठित शोभता है उस तरह हे महावीर स्वामी ! आप अपने अनन्त ज्ञानादि गुणों की निर्मल कीति से जगत में शोभते हुए । त्रोटक छन्द -तुम वीर धवल गुण कीर्ति घरे, जग में शोभे गुण प्रात्म भरे । जिम नभ शोभे शचि चन्द्र ग्रह, सित कुद समं नभय ब्रहं ।। १३६ ।। उत्थानिका--महावीर प्रभु के ऐसे कौन से गुण हैं जिनसे उनकी कोति जग में फैली,सो कहते हैं-- तव जिन शासनविभवो जयति कलानपि गुणानुशासनविभनः । दोषकशासननिमनः स्तुवंति चैनं प्रभाकृशासननिभनः ।। १३७ ।। . अन्वयार्थ--( जिन ) हे जिनेन्द्र ! [ तव शासनविभवः । आपके मत का महात्म्य गुणानुशासनविभवः ) जो भव्य जीवों के संसार का नाश करने वाला है सो (कलो अपि) इस पंचमकाल में भी ( जयति ) जयवन्त हो रहा है। अपनी सर्व उत्कृष्टता बता रहा है। () तथा ( एनं ) इस आपके शासन की ( दोषकशासनविभवः । दोपल्पो कोड़ों को को दूर करने में समर्थ हैं तथा ( प्रभा कृशासनविभवः । जिन्होंने अपनी जान की महिमा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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