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श्री महावीर जिन स्तुति
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( २४ ) श्री महावीरजिन स्तुतिः ... कोा भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया ।
भासोडुसभासितया सोम इव व्योम्नि कुंदशोभासितया ॥ १३६ ।।
अन्वयार्थ-[वीर] हे वीर ! [त्वं] श्राप [भासितया] उज्ज्वल [गुणसमुत्थया ] अपने प्रात्मीक गुणों से उत्पन्न [ तया कीर्त्या ] उस धवल यश से [ भुवि ] पृथ्वी में [भासि] शोभ रहे हो ( व्योम्नि कुन्दशोभासितया उडुभासितया भासा सोम इव ) जिस तरह आकाश में चन्द्रमा कुन्द पुष्प की सी सफेद शोभा रखने वाले नक्षत्रों की सभा से विराजित शोभता है ।
भावार्थ-जिस तरह आकाश में चन्द्रमा सफेद नक्षत्रों से वेष्ठित शोभता है उस तरह हे महावीर स्वामी ! आप अपने अनन्त ज्ञानादि गुणों की निर्मल कीति से जगत में शोभते हुए ।
त्रोटक छन्द
-तुम वीर धवल गुण कीर्ति घरे, जग में शोभे गुण प्रात्म भरे ।
जिम नभ शोभे शचि चन्द्र ग्रह, सित कुद समं नभय ब्रहं ।। १३६ ।। उत्थानिका--महावीर प्रभु के ऐसे कौन से गुण हैं जिनसे उनकी कोति जग में फैली,सो कहते हैं--
तव जिन शासनविभवो जयति कलानपि गुणानुशासनविभनः । दोषकशासननिमनः स्तुवंति चैनं प्रभाकृशासननिभनः ।। १३७ ।। . अन्वयार्थ--( जिन ) हे जिनेन्द्र ! [ तव शासनविभवः । आपके मत का महात्म्य गुणानुशासनविभवः ) जो भव्य जीवों के संसार का नाश करने वाला है सो (कलो अपि) इस पंचमकाल में भी ( जयति ) जयवन्त हो रहा है। अपनी सर्व उत्कृष्टता बता रहा है। () तथा ( एनं ) इस आपके शासन की ( दोषकशासनविभवः । दोपल्पो कोड़ों को को दूर करने में समर्थ हैं तथा ( प्रभा कृशासनविभवः । जिन्होंने अपनी जान की महिमा