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________________ श्री महावीर जिन स्तुति २०६ 'शब्द उसका चिह्न है । तथा वह इस तरह वस्तु के यथार्थ स्वभाव को दिखाता है कि उसमें प्रत्यक्षादि प्रमारण व जिन श्रागम कोई बाधा नहीं प्राती है । प्रापके सिवाय जो एकांत मत हैं, जो सर्वथा वस्तु को नित्य या श्रनित्य या सत् या असत् मानने वाले हैं वे दोप सहित हैं; क्योंकि उनका खण्डन प्रत्यक्षादि प्रमाण व जिन श्रागमसे हो जाता है तथा उनमें स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं बनता है, इसलिये वे प्रस्याद्वाद हैं, दोषरूप हैं । त्रोटक छन्द हे मुनि तुम मत स्याद्वाद अनघ दृष्टेष्ट विरोध विना स्यात् वद । तुमसे प्रतिपक्षी बाघ सहित, नहि स्याद्वाद हैं दोष सहित ॥ १३८ ॥ उत्थानिका -- श्रौर भी भगवान के गुणों को कहते हैं त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्त्वाशयप्ररणामा महितः । लोकत्रयपरम हितोऽनावररगज्योति रुज्ज्वलद्धामहितः ।। १३६ ।। अन्वयार्थ - ( त्वं ) हे वीर ! श्राप ( सुरासुरमहतः । सुर असुर अर्थात् कल्पवासी भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी चार प्रकार देवोंसे पूजनीय हो ( ग्रन्थिकसत्त्वाशय प्ररणामामहितः । किन्तु मिथ्यादृष्टि जीवों के चित्त के प्रणाम द्वारा आप पूज्यनीय नहीं हो प्रर्थात् मिथ्यात्वी जीव श्रापको पहिचानते ही नहीं हैं इसलिये उनकी मिथ्या आशय से भरी स्तुति द्वारा प्रापकी पूज्यता नहीं है । अथवा जिस तरह रागी द्वेषी देवों की स्तुति होती है उस तरह प्रापकी स्तुति यदि की जाय तो उससे आपकी पूज्यता नहीं है । ( लोकत्रयपरमहितः ) माप तीन लोक के प्राणियों के परम हितकारी हैं ( अनावरणज्योति रुज्ज्वलद्वामहितः ) तथा केवलज्ञानमई ज्योति से प्रकाशमान मोक्षधाम में आप विराजित हैं । भावार्थ - श्री वीरनाथ भगवान की महिमा यहां यह बताई है कि प्रभु को समयदृष्टी जीव हो स्तुति कर सकते हैं क्योंकि वे श्रापको पहिचानते हैं। मिथ्यात्त्वी रागी थी जीव के स्तुति योग्य आप नहीं हैं । प्रापको चार प्रकार के देव पूजते हैं । श्रापका उपदेश सब जगत के प्राणियों का हितकर्ता है व श्रापने भाव मोक्ष प्राप्त करली है । प्रोटक छन्द हे जिन सुरसुर तुम्हें पूजें, मिथ्यात्वो चित नहि तुम पूजें । तुम लोकहित के कर्ता, शुचि ज्ञानमई शिव घर घर्ता ।। १३६ ।।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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