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स्वयंभू स्तोत्र टीका। इन्द्रियां केवलज्ञान के प्रकाश में किसी तरह बाधक ही हैं। इस तरह भगवान सर्वज्ञ हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है । आप्तस्वरूप में प्राप्त का स्वरूप ही ऐसा बताया है
निष्कलबोधविशुद्धसुदृष्टिः, पश्यति लोकविभावस्वभावम् ॥
सूक्ष्म निरंजनजोव पुनोऽसौ, तं प्रणमामि सदा परमात्माम् ।। अर्थात्-अरहन्त के निर्मल ज्ञान की शुद्ध दृष्टि प्रकाश हो जाती है जिससे वे लोक के विभाव व स्वभाव सबको जानते हैं । उनका आत्मा सूक्ष्म व कर्म मैल रहित हो जाता है ऐसे उत्कृष्ट प्राप्त को मैं बारबार नमन करता हूं।
छन्द त्रोटक
जिननाथ जगत् सब तुम जाना, युगपत् जिम करतल अमलाना ।
इन्द्रिय वा मन नहिं धात करें, न सहाय करें इम ज्ञान धरे ।। १२६ ।। अतएव ते बुधनुतस्य चरितगुरगमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम्।। १३० ।।
अन्वयार्थ-[ अतएव ] इन अपर लिखित कारणों से ( बुधनुतस्य ) गणधरदेवादि से नमस्कार योग्य ( ते ) आपका (न्यायविहितम् । न्यायपूर्ण व आगम में कथित अनुष्ठान किया हुआ( अद्भुतोदयम् ) व आश्चर्यकारी प्रताप को धरने वाला (चरितगुरणं) घापके चरित्र का महात्म्य ( अवधार्य ) हृदय में धारण करके । जिने ) है जिनेन्द्र ! ( त्वयि ) आपके अन्दर ( सुप्रसन्नमनसः ) अत्यन्त भक्ति से मन लगाने वाले ( वयम् । हम लोग ( स्थिताः ) हाथ जोड़े खड़े हैं।
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! आपका महात्म्य जो केवली अवस्था में प्रकट हुआ उसको जानकर अर्थात् यह देखकर कि प्राप सर्वज्ञ हैं श्रापका उपदेश परम हितकारी है, आपके भीतर क्षुधा आदि १८ दोष नहीं हैं, आपकी वाणी सब मानव देव व पशु को अपनी भाषा में समझ में प्राती है, आपको गणधरादि व नारायण बलदेव व इन्द्रादि सव ही नमन करते हैं, हम लोग प्रापको भक्ति में तल्लीन हुए आपको हाथ जोड़े नमन कर रहे हैं क्योंकि श्राप हो नमन के योग्य हैं।