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श्री नेमिनाथ जिन स्तुति
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र देता है जिससे वह सिद्धक्षेत्र सदा माना जावे व मध्य जीव यात्रा करके परम पुण्य का लाभ करें ।
छन्द त्रोटक
भुवि काहि ककुद गिरनार प्रचल, विद्याधरणी सेवित स्वशिखर । हैं मेघ पटल छाए जिस तट, तब चिह्न उकेरे वजू मुकुट ||
इम मिद्ध क्षेत्र घर तीर्थ भया, श्रव भी ऋषि गण से पूज्य थया । जो प्रीति हृदय घर श्रावत हैं, गिरनार प्रणम सुख पावत हैं ॥१२७-१२८ ।।
उत्थानिका --कोई शङ्का करता है कि भगवान को हमारे समान इन्द्रिय जनित ज्ञान है, उनको सर्वज्ञ क्यों कहते हैं ? इसका समाधान करते हैं
बहिरन्तरत्युभयथा च कररणमविघाति नायंकृत् ।
नाथ ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलाssमलकवद्विवेदिय ॥ १२६ ॥
श्रन्वयार्थ - ( नाथ ) हे नेमिनाथ ! ( त्वम् ) आपने ( इदं ग्रखिलं ) इस सम्पूर्ण जगत को ( युगपत् ) एक ही साथ [ तलामलकवत् ] हाथ में स्फटिक मणि के समान [ सदा] सदा के लिये ( निवेदिथ ) जान लिया । इस आपके ज्ञान को ( चहिः अंतः श्रपि उभयथा च करणं अविघाति ) बाहरी इन्द्रियें व अन्तरंग मन ये दोनों ही किसी प्रकार mara नहीं डालते हैं ( न अर्थकृत् ) ये इन्द्रियें उस प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये कुछ कार्यकारी नहीं हैं ।
भावार्थ- श्री जिनेन्द्र भगवान को ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा नाश होने से पूर्ण प्रत्यक्ष केवलज्ञान प्रकाश होने से पूर्ण प्रकाशित होता है । उसमें किसी इन्द्रिय या मन की सहायता की जरूरत नहीं पड़ती है । वह ज्ञाप एक ही समय में सर्व जगत के द्रव्यों को सर्व पर्यायों को सदा काल जानता रहता है, वह ग्रात्मा का स्वाभाविक ज्ञान है । जैसे हथेली पर स्फटिक मणि रक्खा हो तो हथेली की सब रेखाओं को एकदम झलकाता है । अर्थात् वह स्फटिकमणि स्वयं पूर्ण झलकता है । इसी तरह केवलज्ञान सर्व को एकदम जानता है । यद्यपि केवली भगवान के इन्द्रियां व मन होते हैं परन्तु वे कुछ काम नहीं करते । मतिश्रुत ज्ञान ही इनके द्वारा काम करते हैं । वे ज्ञान प्रव प्रभु के नहीं रहे । न मे