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स्वयंभू स्तोत्र टीका
छन्द त्रोटक
भगवत् ऋषि ध्यान सु शुक्ल किया, ईंधन बहु कर्म जलाय दिया । विकसित प्रस्तुजवत् नेत्र धरें, हरिवंश केतु नहिं जरा बरें || निर्दोष विनय दम वृष कर्ता, शुचि ज्ञान किरण जन हित कर्ता । शीलोदधि नेमि अरिष्ट जिनं, भव नाश भए प्रभु जिनं ॥ १२६-१२२॥
उत्थानिका – ऐसे भगवान के चरणयुगल की प्रशंसा करते हैंत्रिदशेन्द्र मौलिमणिरत्न किरणविस रोपचुम्बितम् । पादयुगलममलं भवतो विकलत्कुशेशयदलाः रुरगोवरम् ।। १२३ ।। नखचन्द्ररश्मिकवचाऽतिरुचिरशिखरां गुलिस्थलम् । स्वार्थनियतमनसः सुधियः प्रणमन्ति मंत्रमुखरा महर्षयः ॥ १२४ ॥
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अन्वयार्थ – [ भवतः ] आपके [ अन ] मलरहित [ पायुगलं ] चरणकमल त्रिवेन्द्रमौलिमणिरत्नकिरणविसरोपचुम्बितम ] इन्द्रों के मुकुटों की मणिरत्न की किरणों के फैलाव से स्पर्शित होते हैं अर्थात् जब इन्द्र नमस्कार करते हैं तब उनके मुकुट्टों के रत्नों की प्रभा आपके चरणों को स्पर्श करती है [ विकतत्कुशेशयदतारूणीदरम् ] तथा आपके पाद तल फूले हुए लाल कमल के पत्ते के समान लाल वर्ग हैं [दलचंदररितकवचा तिरुचिरशिखरांगुलिस्थलम् ] आपके चरणों के नल रूपी चन्द्रमा की किरणों के मण्डल ने संगुलियों के अग्रभाग को अति शोभतीक कर दिया है ऐसे आपके चरणकमलों को स्वार्थ नियतमनसः ) आत्महित करने की मनशा रखने वाले ( संत्रसुखराः । मन्त्रों के कहने में चतुर ऐसे तुष्यः ) बुद्धिमान ( महर्षयः महान सुविण ( समंति { करते हैं ।
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चमत्कार
भावार्थ—यहां श्री नेमिनाथ के चरणों को प्रशंसा की है कि वे अत्यन्त निर्मत हैं को इन्द्रादि देव सदा नमन करते हैं तथा उनके पादतल लात वर्ग के है व नाहूनों की
- अंगुलियों के शिखरों को अति रमणीक कर रही है । ऐसे चरणों के भावों को gia में निमित्त कारण जानकर बड़े-बड़े गिल तित्य नमस्कार करते हैं ।