________________
श्री नेमिनाथ स्तुति
(२२) श्री नेमिनाथ जिन स्तुति:
भगवानृषिः परमयोगदहन हुतकल्मषेन्धनः । ज्ञानविपुल किरणैः सकलं प्रतिबुध्य बुद्धकमलायतेक्षणः।। १२१ ।। हरिवंशकेतुरनवद्य विनयदमतोर्थनायकः ।
शीलजलधिरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिनकुंजरोऽजरः ।। १२२॥
१६७
:
अन्वयार्थ - ( भगवान् ) परम ऐश्वर्यवान् इन्द्रादि से पूज्य ऋषिः ) परम मुनि ( परमयोगदहनहुतकल्मषेन्धनः ) उत्तम शुक्लध्यानरूपी अग्नि से जिसने घातिया कर्मरूपी ईधन को जला डाला है, ( बुद्धकमलायतेक्षणः ) जो फूले हुए कमलपत्र के समान विशाल नेत्रों के धारी हैं, ( हरिवंशकेतुः ) हरिवंश की ध्वजा हैं, ( अनवद्य विनयदमतीर्थनायकः ) निर्दोष विनय और इन्द्रिय विजयरूपी धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं, ( शीलजलधिः ) शील के समुद्र हैं, (जर: ) जरा रहित हैं, ऐसे ( त्वम् ) आप ( अरिष्टनेमिजिनकु जरः ) कर्मों की चक्रधारा के जीतने में मुख्य श्रीश्ररिष्टनेमि जिन तीर्थङ्कर हैं । प्रापने (ज्ञानविपुल किरणैः) अपने केवलज्ञान की विशाल किरणों से ( सकल प्रतिबुध्य ) सर्व जीवों को धर्म मार्ग समझाकर (विभव : ) भय से रहित मुक्तपना ( अभवः ) प्राप्त कर लिया ।
भावार्थ - यहां हरिवंश में उत्पन्न श्री अरिष्टनेमि जिन २२ वें तीर्थङ्कर को सार्थक स्तुति की है । श्ररिष्ट कर्मों को कहते हैं उनकी नेमि कहिये चक्रधारा उसको जीतने वाले प्रभु हैं । भगवान परम मुनि समचतुरस्रसंस्थान के धारी हैं. इसीलिये उनके लोचन कमलपत्र के समान विशाल हैं । आपने साधुपद में शुक्लध्यान के द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट किया । फिर केवलज्ञानी होकर १८००० शील के धनी हुए । ग्रापका शरीर सदा युवा पुरुष के समान रहा । आपने भव्य जीवों को जैन धर्म समझाया, फिर सर्व कर्मों से छूटकर प्राप मुक्त होगये ।
प्राप्तस्वरूप में अरहन्त का स्वरूप कहा है-
ताप्तं परमंश्वर्यं परानंदसुखास्पदं । बोधरूपं कृतार्थोऽसावीश्वरः पटुभिः स्मृतः ॥ २३ ॥
भावार्थ - जिसने ज्ञानस्वरूप परम ऐश्वर्य को जो परमानन्द का स्थान है प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतत्कृत्य है उसे बुद्धिमानों ने ईश्वर कहा है ।