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स्वयंभूस्तोत्र टीका अन्वयार्थ-( यतः ) क्योंकि ( ते वपुः ) प्रापका शरीर ( भूषावेषव्यवधिरहितं ) जो आभूषण व वस्त्र आदि के आच्छादन से रहित हैं तथा ( शांतिकरण। जिसमें सर्व इन्द्रिय अपने २ विषयों के ग्रहण से रहित हो शांत होगई हैं । ( संचण्टे ) यह कहता है कि प्रापने ( स्मरशरविषातंकविजय । कामदेव के वारणों के विष से होने वाले रोग को जीत लिया है तथा ( भीमै शस्त्रैः विना ) भयानक शस्त्रों के बिना ही ( अदयहृदयामर्षविलयं । निर्दयी हदय धारी भीतर होने वाले क्रोध का नाश आपने कर दिया है (ततः) इस कारण से ( त्वं ) प्राप ( निर्मोहः ) मोह रहित वीतराग हैं तथा ( शांतिनिलयः ) मोक्ष के स्थान हैं या मोक्षरूप हैं । नः शरणं असि ) इस कारण हमारे लिये आप शरण रूप हैं ।
भावार्थ-यहां यह बताया है कि श्री नमिनाथ का शांति-ध्यानमय शरीर का रूप जिसमें न कोई वक्षत्र है न आभूषण है व जिसमें सर्व इन्द्रियां परम शांत हो रही हैं यह बात देखने वाले को झलकाता है कि प्रभु ने कामदेव को जीत लिया है तथा क्रोधरूपी शत्रु का सर्वथा विलय कर दिया है । इसीसे सिद्ध होता है कि प्रभु मोह रहित हैं व सुखशांति के स्थान मोक्षरूप हैं। क्योंकि हम राग-द्वेष मोह में फंसे हैं जिनसे हमने संसार में बहुत कष्ट पाये हैं व जिनको हम नाश करना चाहते हैं । इसलिये हमें ऐसे ही प्रभ की शरण में जाना चाहिये व उसी का ही पाराधन करना चाहिये जो परम वीतराग सर्वज्ञ हैं। हे नमिनाथ भगवान ! आपको ऐसा ही जानकर हमने आपकी शरण ग्रहण की है। अरहन्त का ऐसा ही स्वरूप धम्मरसायण में कहा है
जियकोहो जियमाणो जियमायालोहमोह जियमय प्रो ।
जियमच्छरो य जह्मा तह्मा णामं जिणो उत्तो ।। १३५ ।। भावार्थ-क्योंकि प्रभु ने क्रोध को, मान को, माया को, लोभ को, मोह को, मदको व ईा आदि कुभावों को जीत लिया है इसलिये ही प्रभु जिन कहे गए हैं।
सृग्विणी छन्द प्रापका प्रङ्ग भूषण वसन से रहित, इन्द्रियां शांत जहं कहत तुम काम जित । उग्र शस्त्रं विना निर्दयी कोघ जित्, पाप निर्मोह शममय शरण राख नित "